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चन्द्रशेखर आजाद Indian Revolutionist

पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद'
(23 जुलाई 1907 से 27 फरवरी 1931)

अमर शहीद पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद'
उपनाम : 'आजाद','पण्डित जी','बलराज' व 'Quick Silver'
जन्मस्थल : भाँवरा गाँव जिला झाबुआ [मध्य प्रदेश]
मृत्युस्थल: अल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद [उत्तर प्रदेश]
आन्दोलन: भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
प्रमुख संगठन: हिदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन-के प्रमुख सेनापति (1928)
पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद' (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यन्त सम्मानित और लोकप्रिय क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता सेनानी थे। वे पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' व भगत सिंह सरीखे महान क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे। असहयोग आन्दोलन के अचानक बन्द हो जाने के बाद उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशनके सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने 'बिस्मिल' के नेतृत्व में काकोरी-काण्ड किया और फरार हो गये। 1927 में 'बिस्मिल' के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ सॉण्डर्स-वध एवम् असेम्बली बम-काण्ड को अंजाम दिया।

जन्म तथा प्रारंभिक जीवन

पण्डित चन्द्रशेखर आजाद का जन्‍म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के भावरा गाँव में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी संवत १९५६ के अकाल के समय अपने निवास उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले अलीराजपुर रियासत में रहे और फिर भावरा में बस गए। यहीं चन्द्रशेखर का जन्म हुआ। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था।

संस्कारों की धरोहर

चन्द्रशेखर आजाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं0 सीताराम तिवारी से प्राप्त किए। तिवारी जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों पर जुल्म कर सकते थे और न स्वयं जुलम सहन कर सकते थे। भावरा में उन्हें एक सरकारी बगीचे में चौकीदारी का काम मिला। भूखे भले ही बैठे रहें पर बगीचे से एक भी फल तोड़कर न तो स्वयं खाते थे और न ही किसी को खाने देते थे। एक बार तहसीलदार ने बगीचे से फल तुड़वा लिए तो तिवारी जी बिना पैसे दिए फल तुड़वाने पर तहसीलदार से झगड़ा करने को तैयार हो गए। इसी जिद में उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। एक बार तिवारी जी की पत्नी पडोसी के यहाँ से नमक माँग लाईं इस पर तिवारी जी ने उन्हें खूब डाँटा ऑर चार दिन तक सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण आजाद ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।

आजाद का बाल्य-काल

1919 मे हुए जलियां वाला बाग नरसंहार ने उन्हें काफी व्यथित किया 1921 मे जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होने उसमे सक्रिय योगदान किया। यहीं पर उनका नाम आज़ाद प्रसिद्ध हुआ । इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली। सजा देने वाले मजिस्ट्रेट से उनका संवाद कुछ इस तरह रहा -
तुम्हारा नाम ? आज़ाद
पिता का नाम? स्वाधीन
तुम्हारा घर? जेलखाना
मजिस्ट्रेट ने जब १५ बेंत की सजा दी तो अपने नंगे बदन पर लगे हर बेंत के साथ वे चिल्लाते - महात्मा गांधी की जय। बेंत खाने के बाद तीन आने की जो राशि पट्टी आदि के लिए उन्हें दी गई थी, को उन्होंने जेलर के ऊपर वापस फेंका और लहूलुहान होने के बावजूद अपने एक दोस्त डॉक्टर के यहाँ जाकर मरहमपट्टी करवायी। आजाद की जन्म भूमि भावरा आदीवासी बाहुल्य थी बचपन में आजाद ने भील बालको के साथ खूब धनुष बाण चलाये आजाद ने निशानेबाजी बचपन में सीख ली थी ।

क्रान्तिकारी संगठन

सत्याग्रह आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में चौराचौरी की घटना को आधार बनाकर गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो भगतसिंह की तरह आज़ाद का भी काँग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल,पण्डित चन्द्रशेखर आजाद,शचीन्द्र सान्याल,जोगेश चन्द्र ने 1928 में उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातात्रिक संघ (एच आर ए)का गठन किया । इस संगठन ने जब गाँवों में अमीर घरों पर डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाया जा सके तो तय किया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का तमंचा छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उसपर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल शामिल थे, की बड़ी दुर्दशा हुई क्योंकि पूरे गाँव ने उनपर हमला कर दिया था। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी १९२५ को दल ने देशभर में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रांतिकारी) बांटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा था। इस पैम्फलेट में रूसी क्रांति की चर्चा मिलती है और इसके लेखक सम्भवतः शचीन्द्रनाथ सान्याल थे। " एच आर ए " के गठन के अवसर से ही इन नेताओं में इस संगठन के उद्देश्य प‍र मतभेद था । 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फिरोज शाह् कोटला मेँदान में इन सभी क्रांति़कारियो ने एक गुप्त सभा का आयोजन किया इस सभा में भगतसिहं भी सदस्य् बनाये गये इस सभा में तय किया गया की सब क्रांतिकारी दलो को अपने उद्देश्य इस सभा में केन्द्रीत करने चाहिये और समाजवाद को अपना उद्देश्य घोषित किया । " हिदुंस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन " का नाम बदलकर " हिदुंस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन " रख लिया इस दल के गठन का पर इनका नारा था " हमारी लडाई आखिरी फैसला होने तक की लडाई हेँ - यह फैसला है जीत या मौत ।
इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफ़ाक उल्ला खान ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जाएगा। और ऐसा ही हुआ। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को क्रमशः १९ और १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया। इस मुकदमे के दौरान दल निष्क्रिय रहा और एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन यह योजना पूरी न हो सकी।

चरम सक्रियता

आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट जो स्वराज भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने 'फासीवदी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। यद्यपि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को रूस में समाजवाद के प्रशिक्षण के लिए भेजने के लिए एक हजार रूपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगतसिंह एसेम्बली में बम फेंकने गए तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गई। सांडर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और फिर बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी उन्होंने की । आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८ मई १९३० को भगवतीचरण वोहरा की बमपरीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना खटाई में पड़ गई थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुर की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में रुद्रनारायण, सदाशिव मुल्कापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३० को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में जाते वक्त शहीद कर दिया था।

शहादत

२५ फरवरी १९३१ से आज़ाद इलाहाबाद में थे और यशपाल को समाजवाद के प्रशिक्षण के लिये रूस भेजे जाने सम्बन्धी योजनाओं को अन्तिम रूप दे रहे थे। २७ फरवरी का दिन भारतीय क्रांतिकारी इतिहास का प्रलयकांरी दिन था पण्डित चन्द्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क (जिसका नाम अब चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क कर दिया गया है) में सुखदेव,सुरेन्द्र नाथ पांडे एवं श्री यशपाल के साथ चर्चा में व्यस्त थे। तभी किसी मुखविर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। सुरेन्द्र नाथ पांडे एवं यशपाल ने आजाद से कहा की हम पुलिस को रोकते हेँ आप जाये आपकी देश को जरुर‍त हेँ लेकिन आजाद ने मना कर दिया एवं आजाद ने और क्रांतिकारीयो को भगा दिया और स्वम् पुलिस से भिड् गये आजाद ने तीन पुलिस वालो को मौत के घाट उतार दिया एवं सौलह को घायल कर दिया आजाद ने प्रतिञा ले ऱखी थी की वे कभी जिंदा पुलिस के हाथ नही आयेगें इस प्रतिञा को पुरी करते हुये जब मुठभेड् के दौरान आजाद के पास अंतिम गोली बची तो उस गोली को उन्होनें स्वंम् को मार लिया और आज़ाद शहीद हुए। पुलिस आजाद से इतनी भयभीत थी की उनके शरीर के पास काफी देर तक नही गयी भयभीत पुलिस ने श्री आजाद के वीरगति को प्राप्त होने के बाद भी उनके मृत शरीर प‍र कई गोलिया दागी थी । पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये श्री आजाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जेँसे ही आजाद की शहादत की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड बाग में उमड पडा लोग जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुये उस वृक्ष की पूजा करने लगे वृक्ष के झंडीया बांध दी गई लोग उस स्थान की माटी को कपडो में शीशीयों में भरकर ले जाने लगे। पूरे इलाहाबाद में आजाद की शहाद्त की खबर से जब‍रदस्त तनाव हो गया शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानो प‍र हमले होने लगे लोग सड्कों पर आगये।
आज़ाद के शहादत की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के वक्त लोगो का हुजुम शमशान घाट कमला नेहरु के साथ पहुंचा और आजाद की अस्थियाँ लेकर युवकों का एक जुलूस निकला इस जुलुस में इतनी भीड् थी की इलाहाबाद की मुख्य सड्क पर जाम लग गया ऐसा लग रहा था की जेँसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा भारत देश अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड् पडा जुलुस के बाद सभा हुई। सभा को शचिन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीरामबोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को जवाहरलाल नेहरू ने भी सम्बोधित किया। इससे पूर्व ६ फरवरी १९२७ को मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे क्योंकि उनके देहान्त से क्रांतिकारियों ने अपना एक सच्चा हमदर्द खो दिया था।

व्यक्तिगत जीवन

आजाद एक देशभक्त थे। अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से सामना करते वक्त जब उनकी पिस्तौल में आखिरी गोली बची तो उसको उन्होंने खुद पर चला कर शहादत दी थी। उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख था और इसका उपयोग उन्होंने कई दफ़े किया। एक बार वे दल के लिए धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद डेरे के पाँच लाख की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाए पर वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि साधु मरणासन्न नहीं था और वे वापस आ गए। रूसी क्रान्तिकारी वेरा किग्नर की कहानियों से वे बहुत प्रभावित थे और उनके पास हिन्दी में लेनिन की लिखी एक किताब भी थी। हंलांकि वे कुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने मे ज्यादा आनन्दित होते थे। जब वे आजीविका के लिए बम्बई गए थे तो उन्होंने कई फिल्में देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था पर बाद में वे फिल्मो के प्रति आकर्षित नहीं हुए। एक बा‍र जब आजाद कानपुर के मशहुर व्यवसायी श्री प्यारेलाल अग्रवाल के निवास पर एक समारोह में आये हुये थे । श्री अग्रवाल देशभक्त थे क्रातिकारियो की आथि॑क मदद किया क‍रते, आजाद और अग्रवाल बाते कर रहे थे तभी सूचना मिली की पुलिस ने हवेली को घेर लिया, श्री प्यारेलाल घबरा गये और आजाद सें कहने लगे वे अपनी जान दे देंगे पर उनको कुछ नही होने देंगे आजाद हंसते हुये बोले आप चिंता ना करे में यांहा से मिठाई खायें बिना नही जाने वाला फिर वे सेठानी जी से बोले आओ भाभीजी बाह‍र मिठाई बांट आये आजाद ने गमछा सिर पर रखा मिठाई का टो़करा उठाया और सेठानी जी के साथ चल दिये दोनो मिठाई बांटते बाहर आगये बाहर खडी पुलिस को भी मिठाई खिलाई पुलिस की आँखो के सामने से आजाद मिठाई वाला बनकर निकल गये पुलिस सोच भी नही पायी ऐसे थे आजाद । चन्द्रशेखर आजाद हमेशा सत्य बोलते थे, एक बार आजाद पुलिस से छिपकर जंगल में साधु के भेष में रह रहे थे एक दिन जंगल में पुलिस आगयी देवयोग से पुलिस आजाद के पास पहुंच गयी पुलिस ने साधु वेश धारी आजाद से पूछा बाबा आपने आजाद को देखा क्या साधु भेषधारी आजाद बोले बच्चा आजाद को देखना क्या हम तो हमेशा आजाद रहते‌ हें हम ही आजाद हेँ। चन्द्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्‍त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ।आजाद सभि क्रन्नतिकरियो मे से एक थे।

श्रद्धांजलि

चन्द्रशेखर की मृत्यु से मेँ आहत हुं ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हेँ। फिर भी हमे अहिंसक रुप से ही विरोध क‍रना चाहिये।
- महात्मा गांधी 
चन्द्रशेखर आजाद की शहादत से पूरे देश में आजादी के आंदोलन का नये रुप में शंखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिदुंस्तान हमेशा याद रखेगा।
- पण्डित जवाहर लाल नेहरू 
पण्डितजी की मृत्यु मेरी निजी क्षति हेँ मेँ इससे कभी उबर नही सकता।
- पण्डित मदन मोहन मालवीय 
देश ने एक सच्चा सिपाही खोया।
- मोहम्मद अली जिन्ना





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