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राम प्रसाद 'बिस्मिल' भारत के महान क्रान्तिकारी व अग्रणी स्वतन्त्रता सेनानी ही नहीं, अपितु उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासविद् व साहित्यकार भी थे जिन्होंने भारत की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका जन्म ११ जून सन् १८९७ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर में हुआ था। उनके पिताश्री मुरलीधर, शाहजहाँपुर नगरपालिका में काम करते थे। १९ दिसम्बर सन् १९२७ को बेरहम ब्रिटिश सरकार ने गोरखपुर जेल में फाँसी पर लटकाकर उनकी जीवन-लीला समाप्त कर दी। 'बिस्मिल' उनका 'उपनाम' था जिसका हिन्दी अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। वे बड़े ही होनहार तेजस्वी महापुरुष थे। यदि उन्हें फाँसी न दी गयी होती तो वे भारत की सम्पूर्ण सामाजिक,आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था बदल सकते थे - यह क्षमता उनमें थी। उनका एक मात्र उपलब्ध चित्र यहाँ दिया जा रहा है जिससे कि उनके व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन किया जा सके।

दादाजी एवं पिताजी


मुरैना के बरबई गाँव में स्थापित राम प्रसाद 'बिस्मिल' की प्रतिमा
राम प्रसाद'बिस्मिल' के दादा जी नारायण लाल का पैतृक गाँव बरबई तत्कालीन ग्वालियर राज्य में चम्बल नदी के बीहड़ों में बसे तत्कालीन तोमरधार क्षेत्र किन्तु वर्तमान मुरैना जिले में आज भी है। बरबई ग्राम-वासी बड़े ही उद्दण्ड प्रकृति के व्यक्ति थे जो आये दिन अँग्रेजों व अँग्रेजी आधिपत्य वाले ग्राम-वासियों को तंग करते थे। पारिवारिक कलह के कारण नारायण लाल ने अपनी पत्नी विचित्रा देवी व दोनों पुत्रों-मुरलीधर एवं कल्याणमल सहित अपना पैतृक गाँव छोड़ दिया। उनके गाँव छोडने के बाद बरबई में केवल उनके दो भाई-अमान सिंह व समान सिंह ही रह गये। उनके वंशज आज भी उसी गाँव में रहते हैं। केवल इतना परिवर्तन हुआ है कि बरबई में राम प्रसाद 'बिस्मिल' की एक भव्य प्रतिमा स्थापित कर दी गयी है।
काफी भटकने के पश्चात् यह परिवार शाहजहाँपुर आ गया। शाहजहाँपुर में मुन्नूगंज के फाटक के पास स्थित एक अत्तार की दुकान पर मात्र तीन रुपये मासिक में नारायण लाल ने नौकरी करना शुरू कर दिया। भरे-पूरे परिवार का गुजारा न होता था। मोटे अनाज-बाजरा,ज्वार,सामा,ककुनी को राँध(पका)कर खाने पर भी काम न चलता था। फिर बथुआ या ऐसा ही कोई साग आदि आटे में मिलाकर भूख शान्त करने का प्रयास किया गया। दोनों बच्चों को रोटी बनाकर दी जाती किन्तु पति-पत्नी को आधे भूखे पेट ही गुजारा करना होता। ऊपर से कपड़े-लत्ते और मकान किराये की विकट समस्या तो थी ही। बिस्मिल की दादी जी विचित्रा देवी ने अपने पति का हाथ बटाने के लिये मजदूरी करने का विचार किया किन्तु अपरिचित महिला को कोई भी आसानी से अपने घर में काम पर न रखता था। आखिर उन्होंने अनाज पीसने का कार्य शुरू कर दिया। इस काम में उनको तीन-चार घण्टे अनाज पीसने के पश्चात् एक या डेढ़ पैसा ही मिल पाता था। यह सिलसिला लगभग दो-तीन वर्ष तक चलता रहा। दादी जी बड़ी स्वाभिमानी प्रकृति की महिला थीं, अत: उन्होंने हिम्मत न हारी। उनको पक्का विश्वास था कि एक-न-एक दिन अच्छे दिन अवश्य आयेंगे।
समय बदला। शहर के निवासी शनै:-शनै: परिचित हो गये। नारायण लाल थे तो तोमर जाति के क्षत्रिय किन्तु उनके आचार-विचार,सत्यनिष्ठा व धार्मिक प्रवृत्ति से स्थानीय लोग प्रायः उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित करते थे। इससे उन्हें एक लाभ यह भी होता था कि प्रत्येक तीज त्योहार पर दान-दक्षिणा व भोजन आदि घर में आ जाया करता। इसी बीच नारायण लाल को स्थानीय निवासियों की सहायता से एक पाठशाला में सात रुपये मासिक पर नौकरी मिल गई। कुछ समय पश्चात् उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी और रेजगारी(इकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी के सिक्के) बेचने का कारोबार शुरू कर दिया जिससे उन्हें प्रतिदिन पाँच-सात आने की आय होने लगी। अब तो बुरे दिनों की काली छाया भी छटने लगी। नारायण लाल ने रहने के लिये एक मकान भी शहर के खिरनीबाग मोहल्ले में खरीद लिया और बड़े बेटे मुरलीधर का विवाह अपने ससुराल वालों के परिवार की एक सुशील कन्या मूलमती से करके उसे इस घर में ले आये। घर में बहू के चरण पड़ते ही बेटे का भी भाग्य बदला और मुरलीधर को शाहजहाँपुर नगर निगम में १५ रुपये मासिक वेतन पर नौकरी मिल गई किन्तु उन्हें यह नौकरी नहीं रुची अतः उन्होंने त्यागपत्र देकर कचहरी में स्टाम्प पेपर बेचने का काम शुरू कर दिया। इस व्यवसाय में उन्होंने अच्छा खासा धन कमाया। तीन बैलगाड़ियाँ किराये पर चलने लगीं व ब्याज पर रुपये उधार देने का काम भी करने लगे।

जन्म, आरम्भिक जीवन एवं शिक्षा


'बिस्मिल' के पिताजी मुरलीधर का रेखाचित्र
११ जून १८९७ तदनुसार ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, सम्वत् १८५४,शुक्रवार, पूर्वान्ह ११ बजकर ११ मिनट पर उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जनपद में जिला जेल के निकट स्थित खिरनीबाग मुहल्ले में पं० मुरलीधर की धर्मपत्नी श्रीमती मूलमती की कोख से इस दिव्यात्मा का आविर्भाव हुआ। आप अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। आपकी जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी- "यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा,यद्यपि सम्भावना बहुत कम है,तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।" (सरफरोशी की तमन्ना-भाग एक,पृष्ठ १७) माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था अतः ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर ''र'' से निकलने वाला नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे अतः रामप्रसाद नाम रखा गया। माँ तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था सो राम ने उनकी पूजा से प्रसन्नहोकर प्रसाद के रूप में यह पुत्र दे दिया। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे। रामप्रसाद के जन्म से पूर्व उनकी माँ एक पुत्र खो चुकी थीं अतः जादू-टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आँगन के दो-चार चक्कर लगाये और मर गया। यह विचित्र अवश्य लगे किन्तु सत्य घटना है और शोध का विषय है। इसका उल्लेख राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने स्वयं अपनी आत्मकथा में किया है। मुरलीधर के कुल ९ सन्तानें हुईं जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। रामप्रसाद उनकी दूसरी संतान थे। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का भी देहान्त हो गया।

बिस्मिल की माँ मूलमती का दुर्लभ चित्र
बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। जहाँ कहीं वह गलत अक्षर लिखता उसकी खूब पिटाई की जाती लेकिन उसमें चंचलता व उद्दण्डता कम न थी। मौका पाते ही पास के बगीचे में घुसकर फल आदि तोड़ लाता था जिससे उसकी कसकर पिटाई भी हुआ करती लेकिन वह आसानी से बाज न आता। उसका मन खेलने में अधिक किन्तु पढने में कम लगता था जिसके कारण उसके पिताजी उसकी खूब पिटायी लगाते परन्तु माँ हमेशा उसे प्यार से ही समझाती कि बेटा राम ये बहुत बुरी बात है मत किया करो। इस प्यार भरी सीख का भी उसके मन पर कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पडता। उसके पिता ने पहले हिन्दी का अक्षर ग्यान कराया किन्तु से उल्लू न तो उसने पढना ही सीखा और न ही लिखकर दिखाया। क्योंकि उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढाया जाता था जिसका वह विरोध करता था और बदले में पिता की मार भी खाता था। हार कर उसे उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया। शायद उसके यही प्राकृतिक गुण रामप्रसाद को एक क्रान्तिकारी बना पाये अर्थात् वह अपने विचारों में जन्म से ही पक्का था। लगभग 14 वर्ष की आयु में रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूकची से रुपये चुराने की लत पड़ गई। चुराये गये रुपयों से उसने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गई थी। कुल मिलाकर रुपये-चोरी का सिलसिला चलता रहा और रामप्रसाद अब उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने का आदी हो गया था। संयोग से एक दिन भाँग के नशे में होने के कारण रामप्रसाद चोरी करते हुए पकड़ गये। सारा भाँडा फूट गया। खूब पिटाई हुई। उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गईं लेकिन रुपये चुराने की यह आदत न छूट सकी। हाँ, आगे चलकर थोड़ी समझ आने पर ही इस अभिशाप से मुक्त हो पाये।
रामप्रसाद ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे जिनके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर दिखाई देने लगा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। पुजारी की देखा-देखी उसने व्यायाम भी प्रारम्भ कर दिया। पूर्व की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे छूट गईं। मात्र सिगरेट पीने की लत रह गयी थी जो कुछ दिनों पश्चात् उसके एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन के आग्रह पर जाती रही। अब तो रामप्रसाद का पढाई में भी मन लगने लगा और बहुत वह बहुत शीघ्र ही अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में आ गया। रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। तभी वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत के सम्पर्क में आया जिन्होंने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया व 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ने का विशेष आग्रह किया। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।

स्वामी सोमदेव से भेंट

रामप्रसाद जब गवर्नमेण्ट स्कूल शाहजहाँपुर में नवीं कक्षा के छात्र थे तभी दैवयोग से स्वामी सोमदेव का आर्य समाज में आगमन हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को स्वामीजी की सेवा में नियुक्त कर दिया। यहीं से उनके जीवन की दशा और दिशा दोनों में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। एक ओर सत्यार्थ प्रकाश का गम्भीर अध्ययन व दूसरी ओर स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। सन् १९१६ के काँग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष जगतनारायण 'मुल्ला' के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया। अधिवेशन के दौरान उनका परिचय केशव चक्रवर्ती,सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ। बाद में इन्हीं सोमदेव शर्मा ने किन्हीं सिद्धगोपाल शुक्ल के साथ मिलकर नागरी साहित्य पुस्तकालय,कानपुर से एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसका शीर्षक रखा गया था-अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास। यह पुस्तक बाबू गनेशप्रसाद के प्रबन्ध से कुर्मी प्रेस लखनऊ में सन् १९१६ में प्रकाशित हुई थी। रामप्रसाद ने यह पुस्तक अपनी माताजी से दो बार में दो-दो सौ रुपये लेकर प्रकाशित की थी। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है। यह पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गयी थी बाद में जब काकोरी-काण्ड का अभियोग चला तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गयी थी। अब यह पुस्तक सम्पादित करके ''सरफरोशी की तमन्ना'' नामक ग्रन्थावली के भाग-तीन में संकलित की जा चुकी है और तीनमूर्ति भवन पुस्तकालय,नई-दिल्ली में देखी जा सकती है।

मैनपुरी षड्यन्त्र


पं० गेंदालाल दीक्षित: मैनपुरी षड्यन्त्र में राम प्रसाद 'बिस्मिल' के मार्गदर्शक
सन १९१५ में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद अंग्रेजी साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे,१९१६ में एक पुस्तक भी छपकर आ चुकी थी,कुछ नवयुवक भी उनसे जुड़ चुके थे,स्वामी सोमदेव का आशीर्वाद भी उन्हें प्राप्त चुका था,अब तलाश थी तो एक संगठन की,जो उन्होंने पं० गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में 'मातृवेदी' के नाम से खुद खड़ा कर लिया था। इस संगठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गयी। दल के लिए धन एकत्र करने के उद्देश्य से रामप्रसाद ने,जो अब तक 'बिस्मिल' के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे,जून १९१८ में दो तथा सितम्बर १९१८ में एक डकैती भी डाली,जिससे पुलिस सतर्क होकर इन युवकों की खोज में जगह-जगह छापे डाल रही थी। २६ से ३१ दिसम्बर १९१८ तक दिल्ली के काँग्रेस अधिवेशन में इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला-चिल्ला कर जैसे ही पुस्तकें बेचना शुरू किया कि पुलिस ने छापा डाला किन्तु बिस्मिल की सूझ बूझ से सभी पुस्तकें बच गयीं। मैनपुरी षड्यन्त्र में शाहजहाँपुर से ६ युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर रामप्रसाद'बिस्मिल' थे किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये,तत्काल फरार हो गये। १ नबम्बर १९१९ को मजिस्ट्रेट बी०एस०क्रिस ने मैनपुरी षड्यन्त्र का फैसला सुना दिया। जिन-जिन को सजायें हुईं उनमें मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को फरवरी १९२० में 'आम माफी' के ऐलान में छोड़ दिया गया। बिस्मिल पूरे २ वर्ष भूमिगत रहे। उनके दल के ही कुछ साथियों ने शाहजहाँपुर में जाकर यह अफवाह फैला दी कि भाई रामप्रसाद तो पुलिस की गोली से मारे गये जबकि सच्चाई यह थी कि वे पुलिस मुठभेड़ के दौरान यमुना में छलाँग लगाकर पानी के अन्दर ही अन्दर योगाभ्यास की शक्ति से तैरते हुए मीलों दूर आगे जाकर नदी से बाहर निकले और जहाँ आजकल ग्रेटर नोएडा आबाद हो चुका है वहाँ के निर्जन बीहड़ों में चले गये जहाँ उन दिनों केवल बबूल के ही बृक्ष हुआ करते थे; आदमी तो कहीं दूर-दूर तक दिखता ही न था।

पलायनावस्था में साहित्य-सृजन

रामप्रसाद'बिस्मिल' ने यहाँ के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर/जहाँगीर में शरण ली और कई महीने निर्जन जंगलों में घूमते हुए गाँव के गूजरों की गाय-भैंसें चराईं। इसका बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी 'आत्मकथा' के द्वितीय खण्ड:स्वदेश प्रेम(उपशीर्षक-पलायनावस्था) में किया है। यहीं रहकर उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास 'बोल्शेविकों की करतूत' लिखा। वस्तुतः यह उपन्यास मूलरूप से बँगला पुस्तक 'निहिलिस्ट-रहस्य' का हिन्दी-अनुवाद था जिसकी भाषा और शैली दोनों ही बड़ी रोचक हैं। अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बँगला पुस्तक 'यौगिक साधन' का भी उन्होंने भूमिगत रहते हुए हिन्दी अनुवाद किया था। 'बिस्मिल'की एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी स्थान पर अधिक दिनों तक ठहरते न थे। कुछ दिन अपनी सगी बहन शास्त्री देवी के घर कोसमा जिला मैनपुरी में भी रहे,फिर वहाँ से पिनहट,आगरा होते हुए ग्वालियर रियासत में स्थित अपने दादा के गाँव बरबई चले गये और वहाँ किसान के भेस में रहकर कुछ दिनों हल भी चलाया। पलायनावस्था में उन्होंने १९१८ में प्रकाशित अँग्रेजी पुस्तक दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन का हिन्दी अनुवाद इतना अच्छा किया कि उनके साथियों को यह पुस्तक बहुत पसन्द आयी। इसका नाम उन्होंने कैथेराइन रखा था। इतना ही नहीं, बिस्मिल ने 'सुशीलमाला सीरीज' से कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित कीं थीं जिनमें 'मन की लहर' नामक कविताओं का संग्रह, 'कैथेराइन' या स्वाधीनता की देवी- कैथेराइन ब्रश्कोवस्की की संक्षिप्त जीवनी, स्वदेशी रंग व उपरोक्त 'बोल्शेविकों की करतूत' नामक उपन्यास प्रमुख थे। 'स्वदेशी रंग' के अतिरिक्त अन्य तीनों ही पुस्तकें आम पाठकों के लिये आजकल उपलब्ध हैं।

पुन: क्रान्ति की ओर


सन् 1921 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में गान्धीजी के साथ मंच पर बैठे हुए रामप्रसाद 'बिस्मिल', हसरत मोहानी व हकीम अजमलखाँ
सरकारी ऐलान के बाद रामप्रसाद'बिस्मिल' ने शाहजहाँपुर आकर पहले भारत सिल्क मैनुफैक्चरिंग कम्पनी में मैनेजर के पद पर कुछ दिन नौकरी की उसके बाद सदर बाजार में रेशमी साड़ियों की दुकान खोलकर बनारसीलाल के साथ व्यापार शुरू कर दिया। व्यापार में उन्होंने नाम और नामा दोनों कमाया। कांग्रेस जिला समिति ने उन्हें 'ऑडीटर' के पद पर वर्किंग कमेटी में ले लिया। सितम्बर १९२० में वे कलकत्ता काँग्रेस में शाहजहाँपुर काँग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। कलकत्ते में उनकी भेंट लाला लाजपतराय से हुई। लालाजी ने जब उनकी लिखी हुई पुस्तकें देखीं तो वे उनसे काफी प्रभावित हुए। उन्होंने उनका परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया जिनमें एक उमादत्त शर्मा भी थे, जिन्होंने आगे चलकर सन् १९२२ में रामप्रसाद'बिस्मिल' की एक पुस्तक कैथेराइन छापी थी। सन् १९२१ के अहमदाबाद अधिवेशन में रामप्रसाद'बिस्मिल' ने सिविल नाफरमानी के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी का खुलकर समर्थन किया और गान्धीजी से असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित करवा कर ही माने। इस कारण वे युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गये। पूरे देश में बड़े जोर से असहयोग आन्दोलन शुरू करने में शाहजहाँपुर के स्वयंसेवकों की अहम् भूमिका थी। किन्तु १९२२ में जब चौरीचौरा काण्ड के पश्चात् किसी से परामर्श किये बिना अकेले ही गान्धीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो १९२२ की गया काँग्रेस में बिस्मिल व उनके साथियों ने गान्धीजी का ऐसा विरोध किया कि काँग्रेस में दो विचारधारायें बन गयीं-एक उदारवादी या लिबरल और दूसरी विद्रोही या रिबेलियन। गान्धीजी विद्रोही विचारधारा के नवयुवकों को काँग्रेस की आम सभाओं में विरोध करने के कारण हमेशा हुल्लड़बाज कहा करते थे। एक बार तो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर क्रान्तिकारी नवयुवकों का साथ देने पर कड़ी फटकार भी लगायी थी।

एच०आर०ए० का गठन


सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल: एच०आर०ए० के गठन में रामप्रसाद बिस्मिल के सलाहकार व संरक्षक
जनवरी १९२३ में मोतीलाल नेहरू व देशबन्धु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर 'स्वराज पार्टी' बना ली। नवयुवकों ने तदर्थ पार्टी के रूप में 'रिवोल्यूशनरी पार्टी' का ऐलान कर दिया। सितम्बर १९२३ में दिल्ली के विशेष काँग्रेस अधिवेशन में असन्तुष्ट नवयुवकों ने यह निर्णय लिया कि वे भी अपनी क्रान्तिकारी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में दखल देना शुरू करेंगे अन्यथा देश में लोकतन्त्र के नाम पर लूटतन्त्र हावी हो जायेगा। देखा जाये तो उस समय उनकी यह बड़ी दूरदर्शी सोच थी। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल,जो उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे हुए थे,रामप्रसाद के सम्पर्क में स्वामी सोमदेव के समय से ही थे। लालाजी ने ही पत्र लिखकर रामप्रसाद'बिस्मिल' को शचीन्द्रनाथ सान्याल व यदुगोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी। लालाजी की सलाह मानकर रामप्रसाद इलाहाबाद गये और शचीन्द्रनाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया। इस बात का जिक्र सान्यालजी के छोटे भाई जितेन्द्रनाथ सान्याल ने अपनी पुस्तक 'अमर शहीद सरदार भगतसिंह' में किया है। नवगठित पार्टी का नाम संक्षेप में एच०आर०ए० रक्खा गया व इसका संविधान पीले रँग के पर्चे पर टाइप करके सदस्यों को भेजा गया। ३ अक्तूबर १९२४ को इस पार्टी (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन) की कार्यकारिणी-बैठक कानपुर में की गयी जिसमें शचीन्द्रनाथ सान्याल,योगेशचन्द्र चटर्जी व रामप्रसाद'बिस्मिल' आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। इस बैठक में पार्टी का नेतृत्व बिस्मिल को सौंपकर सान्याल व चटर्जी बंगाल चले गये। पार्टी के लिये फण्ड एकत्र करने में कठिनाई को देखते हुए आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों का तरीका अपनाया गया और पार्टी की ओर से पहली डकैती २० दिसम्बर १९२४ को बमरौली में डाली गयी जिसका कुशल नेतृत्व बिस्मिल ने किया था इसका उल्लेख मन्मथनाथ गुप्त की कई पुस्तकों में मिलता है।

'रिवोल्यूशनरी'[घोषणा-पत्र] का प्रकाशन

क्रान्तिकारी पार्टी की ओर से १ जनवरी १९२५ को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित एवं २८ से ३१ जनवरी १९२५ के बीच समूचे हिन्दुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित ४ पृष्ठ के पैम्फलेट दि रिवोल्यूशनरी में रामप्रसाद'बिस्मिल' ने विजय कुमार के छद्म नाम से अपने दल की विचार-धारा का लिखित रूप में खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गान्धीजी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न भी किया था कि जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक कहता है वह अँग्रेजों से खुलकर बात करने में डरता क्यों है? उन्होंने देश के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेषी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए उनकी क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल होने और पार्टी में शामिल हो कर अँग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आवाहन किया था। दि रिवोल्यूशनरी के नाम से अँग्रेजी में प्रकाशित इस घोषणा-पत्र में क्रान्तिकारियों के स्पष्ठ वैचारिक चिन्तन को आज भी भली-भाँति समझा जा सकता है। ''स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास'' (भाग-तीन) में पृष्ठ ६४४ से ६४८ तक इस पत्र का अविकल हिन्दी काव्यानुवाद व 'सरफरोशी की तमन्ना' (भाग-एक) में पृष्ठ १७० से १७४ तक इसका मूल अँग्रेजी पाठ कोई भी शोध छात्र दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में जाकर देख सकता है।

एतिहासिक काकोरी-काण्ड


सम्राट बनाम रामप्रसाद बिस्मिल व अन्य क्रान्तिकारियों की काकोरी-केस-फाइल
'दि रिवोल्यूशनरी' नाम से प्रकाशित इस ४ पृष्ठीय घोषणा-पत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगी। संयोग से शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह पैम्फलेट अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच०आर०ए० के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये और उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से रामप्रसाद'बिस्मिल'के कन्धों पर यू०पी० के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो और भी अधिक बढ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को बिचपुरी तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं किन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका। इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अपार कष्ट हुआ। अन्ततः उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे,किसी हिन्दुस्तानी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे। शाहजहाँपुर में उनके घर पर हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी और ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० लोग, ८ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। लखनऊ से पहले काकोरी स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढी, चेन खींचकर उसे रोका लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाकउल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रैगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमदअली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और सी०आई०डी० इंस्पेक्टर तसद्दुकहुसैन के नेतृत्व में स्काटलैण्ड यार्ड पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।

गिरफ्तारी और अभियोग


काकोरी-काण्ड में फरार व रामप्रसाद 'बिस्मिल' के सच्चे उत्तराधिकारी: चन्द्रशेखर आजाद का एक दुर्लभ चित्र

सी०आई०डी० ने सरकार को जैसे ही इस बात की पुष्टि की कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है,पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के साथ इश्तिहार सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आए? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गई कि रामप्रसाद'बिस्मिल',जो एच०आर०ए० का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। काकोरी-काण्ड में केवल १० लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे जिनके नाम इस प्रकार हैं: पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल', राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खाँ, मन्मथ नाथ गुप्त, चन्द्रशेखर आजाद, बनबारी लाल, मुरारी लाल, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती और शचीन्द्र नाथ बख्शी। केस में नामजद सभी अभियुक्तों में से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी लाल, केशव चक्रवर्ती, अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा हुई। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच०आर०ए० का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण छोड़ दिया गया। स्पेशल मजिस्टेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी और केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाये।

जी०पी०ओ० लखनऊ के सामने रिंग थियेटर की स्मृति में लगे काकोरी स्तम्भ का उद्घाटन करते यू० पी० के गवर्नर जी० डी० तपासे (1977)
बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था और बिस्मिल ने, जो उस समय जिला काँग्रेस कमेटी के ऑडीटर थे, बनारसी पर पार्टी-फण्ड में गवन का आरोप सिद्ध करते हुए काँग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलम्बित कर दिया था। बाद में जब गान्धीजी शाहजहाँपुर आये तो बनारसी ने उनसे मिलकर अपना पक्ष रक्खा। गान्धीजी ने यह कहकर कि छोटी-मोटी हेरा-फेरी को इतना तूल नहीं देना चाहिये, इन दोनों में सुलह करा दी। बनारसी बड़ा ही धूर्त आदमी था उसने पहले तो बिस्मिल से माफी माँग ली फिर अलग जाकर गान्धीजी को यह बता दिया कि रामप्रसाद बड़ा ही अपराधी किस्म का व्यक्ति है, वे इसकी किसी बात का न तो स्वयं विश्वास करें न ही किसी और को करने दें। आगे चलकर इसी बनारसी लाल ने बिस्मिल से मित्रता कर ली और मीठी-मीठी बातों से पहले तो उनका विश्वास अर्जित किया बाद में उनके साथ कपड़े के व्यापार में साझीदार भी बन गया। जब बिस्मिल ने गान्धीजी की आलोचना करते हुए अपनी अलग पार्टी बना ली तो बनारसी लाल अत्यधिक प्रसन्न हुआ और मौके की तलाश में चुप साधे बैठा रहा। पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े का भेद जानकर ही बनारसी लाल को अप्रूवर (सरकारी गवाह) बनाया और बिस्मिल के विरुद्ध पूरे अभियोग में अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया। बनारसी लाल व्यापार में साझीदार होने के कारण पार्टी सम्बन्धी ऐसी-ऐसी गोपनीय बातें जानता था, जिन्हें बिस्मिल के अतिरिक्त और कोई भी न जान सकता था। इसका उल्लेख राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में किया है।
लखनऊ जेल में सभी क्रान्तिकारियों को एक साथ रक्खा गया और हजरतगंज चौराहे के पास ''रिंग थियेटर'' नाम की एक आलीशान बिल्डिंग में अस्थाई अदालत का निर्माण किया गया। रिंग थियेटर नाम की यह बिल्डिंग कोठी हयात बख्श और मल्लिका अहद महल के बीच हुआ करती थी जिसमें ब्रिटिश अफसर आकर फिल्म व नाटक आदि देखकर मनोरंजन किया करते थे। इसी 'रिंग थियेटर' में लगातार १८ महीने तक ''किंग इम्परर वर्सेस रामप्रसाद'बिस्मिल' एण्ड अदर्स'' के नाम से चलाये गये इस एतिहासिक मुकदमे का नाटक करने में ब्रिटिश सरकार ने १० लाख रुपये उस समय खर्च किये जब सोने का मूल्य २० रुपये तोला (१२ग्राम) हुआ करता था। इससे अधिक मजेदार बात यह हुई कि ब्रिटिश हुक्मरानों के आदेश से यह बिल्डिंग भी बाद में ढहा दी गयी और उसकी जगह सन् १९२९-१९३२ में जी०पी०ओ० लखनऊ के नाम से एक दूसरा भव्य भवन ब्रिटिश सरकार खडा कर गयी। १९४७ में जब देश आजाद हो गया तो यहाँ गान्धीजी की भव्य प्रतिमा स्थापित करके रही सही कसर हमारे देशी हुक्मरानों ने पूरी कर दी। जब केन्द्र में गैर काँग्रेसी सरकार का पहली बार गठन हुआ तो उस समय के जीवित क्रान्तिकारियों के सामूहिक प्रयासों से सन् १९७७ में आयोजित काकोरी शहीद अर्धशताब्दी समारोह के समय यहाँ पर काकोरी स्तम्भ का अनावरण उत्तर प्रदेश के राज्यपाल गणपतिराव देवराव तपासे ने किया ताकि उस स्थल की स्मृति बनी रहे।
इस एतिहासिक मुकदमे में सरकारी खर्चे से हरकरननाथ मिश्र को क्रान्तिकारियों का वकील नियुक्त किया गया जबकि जवाहरलाल नेहरू के साले जगतनारायण 'मुल्ला' को एक सोची समझी रणनीति के अन्तर्गत सरकारी वकील बनाया गया जिन्होंने अपनी ओर से सभी क्रान्तिकारियों को कड़ी से कडी सजा दिलवाने में कोई कसर बाकी न रक्खी। यह वही जगतनारायण थे जिनकी मर्जी के खिलाफ सन् १९१६ में बिस्मिल ने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की भव्य शोभायात्रा पूरे लखनऊ शहर में निकाली थी। इसी बात से चिढकर 'मैनपुरी-षड्यन्त्र' में इन्ही मुल्लाजी ने सरकारी वकील की हैसियत से जोर तो काफी लगाया परन्तु वे राम प्रसाद 'बिस्मिल' का एक भी बाल बाँका न कर पाये थे क्योंकि मैनपुरी-षड्यन्त्र में बिस्मिल फरार हो गये थे और पुलिस के हाथ ही न आये।

फाँसी की सजा और अपील


ऊपर 'बिस्मिल' व अशफाक का चित्र,नीचे काकोरी-काण्ड में दण्डित क्रान्तिकारियों का ग्रुप-फोटो, जिसमें नं० 9 पर रोशनसिंह, 10 पर रामप्रसाद 'बिस्मिल' व 11 पर राजेन्द्र लाहिड़ी (तीनों को मृत्यु-दण्ड की सजा)
६ अप्रैल १९२७ को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने ११५ पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये गये आरोपों पर विचार करते हुए यह लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी क्रान्तिकारी व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चाताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का कोई वचन ही दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। किन्तु यदि कोई भी लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है।
फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी को बहुत बाद में पुलिस गिरफ्तार कर पायी। स्पेशल जज जे०आर०डब्लू० बैनेट की अदालत में काकोरी कांस्पिरेसी का सप्लीमेण्ट्री केस दायर किया गया और १३ जुलाई १९२७ को यही बात दोहराते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को उम्र-कैद की सजा सुना दी गयी। सेशन जज के फैसले के खिलाफ १८ जुलाई १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त,जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशनसिंह व अशफाकउल्ला खाँ की पैरवी की। रामप्रसाद'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसे लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया। बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील मुल्लाजी बगलें झाँकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से यह पूछना पड़ा-"मिस्टर रामप्रसाड! फ्रॉम भिच यूनीवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ ला?" इस पर बिस्मिल ने हँस कर कहा था-"एक्सक्यूज मी सर! ए किंग मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री।"
चीफ कोर्ट में शचीन्द्रनाथ सान्याल,भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारीलाल को छोड़कर शेष सभी क्रान्तिकारियों ने अपील की थी। २२ अगस्त १९२७ को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार रामप्रसाद'बिस्मिल',राजेन्द्र लाहिड़ी व अशफाकउल्ला खाँ को आई०पी०सी० की दफा १२१(ए)व १२०(बी)के अन्तर्गत उम्र-कैद तथा ३०२ व ३९६ के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशनसिंह को पहली दो दफाओं में ५+५ कुल १० वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का हुक्म हुआ। शचीन्द्रनाथ सान्याल,जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे जिसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। उनके छोटे भाई भूपेन्द्रनाथ सान्याल व बनवारीलाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने अपील नहीं की और दोनों को ५-५ वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी,मुकुन्दीलाल व गोविन्दचरण कार की सजायें १०-१० वर्ष से बढाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी यथावत (७-७ वर्ष) रहीं। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को ५ वर्ष से घटाकर ४ वर्ष कर दिया गया।

9 सितम्बर 1927 को गोरखपुर जेल से पंडित मदनमोहन मालवीय को लिखा गया पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का हस्तलिखित पत्र, जिस पर गोविन्दबल्लभ पन्त की मार्मिक टिप्पणी है।
चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल गयी। ठाकुर मनजीतसिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी डकैती केस के सभी मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके उम्र-कैद में बदलने का प्रस्ताव पेश करने की सूचना दी। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय प्रान्त के गवर्नर थे,इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया किन्तु उसने उसे अस्वीकार कर दिया। सेण्ट्रल कौन्सिल के ७८ सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला में हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल भेजा जिस पर प्रमुख रूप से पं० मदनमोहन मालवीय,मोहम्मदअली जिन्ना,एन०सी०केलकर,लाला लाजपतराय,गोविन्दवल्लभ पन्त,गणेशशंकर विद्यार्थी आदि ने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ। अन्त में मालवीयजी के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधिमण्डल शिमला जाकर वायसराय से मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः जजमेण्ट पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया। अन्ततः बैरिस्टर मोहनलाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस०एल०पोलक के पास भिजवाये किन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर यही दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार रामप्रसाद'बिस्मिल' बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में सरकार को हिन्दुस्तान में शासन करना असम्भव हो जायेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।

जेल में आत्मकथा का लेखन और प्रेषण


गोरखपुर में घण्टाघर पर बिस्मिल की अर्थी को जनता के दर्शनार्थ रखा गया था, उस समय का चित्र
सेशन कोर्ट ने अपने फैसले में फाँसी की तारीख १६ सितम्बर १९२७ निश्चित की थी जिसे चीफ कोर्ट के निर्णय में आगे बढाकर ११ अक्तूबर १९२७ कर दिया गया। काकोरी-काण्ड के क्रान्तिकारियों की सहायता के लिये गणेशशंकर विद्यार्थी ने 'डिफेन्स कमेटी' बनायी थी जिसमें शिवप्रसाद गुप्त ,गोविन्दवल्लभ पन्त व श्रीप्रकाश आदि शामिल थे। इस कमेटी ने कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील बी०के०चौधरी व एक अन्य एडवोकेट मोहनलाल सक्सेना को प्रिवी कौन्सिल में याचिका दायर करने का दायित्व सौंपा था। गोरखपुर जेल में जब मोहनलाल सक्सेना बिस्मिल से मिलने गये तो अपने साथ कई दस्ते सादे कागज,पेन्सिल,रबड़ व नीचे रखने के लिये एक फुलस्केप साइज का कोरा रजिस्टर भी ले गये थे और जेलर की अनुमति से इस शर्त के साथ कि अभियुक्त इनका इस्तेमाल अपनी अपील लिखने के लिये ही करेगा,बिस्मिल को दे आये थे।
बिस्मिल ने अपील तैयार करने में बहुत कम कागज खर्च किये और शेष बची स्टेशनरी का प्रयोग अपनी आत्मकथा लिखने में कर डाला। यह थी उनकी सूझबूझ और सीमित साधनों से अपना काम चला लेने की असाधारण योग्यता! प्रिवी कौन्सिल से अपील रद्द होने के बाद फाँसी की नई तिथि १९ दिसम्बर १९२७ की सूचना गोरखपुर जेल में बिस्मिल को दे दी गयी थी किन्तु वे इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा,जिसे उन्होंने 'निज जीवन की एक छटा' नाम दिया था,पूरी करने में दिन-रात डटे रहे,एक क्षण को भी न सुस्ताये और न सोये। उन्हें यह पूर्वाभास हो गया था कि बेरहम और बेहया ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से मिटा कर ही दम लेगी तभी तो उन्होंने आत्मकथा में एक जगह उर्दू का यह शेर लिखा था-"क्या हि लज्जत है कि रग-रग से ये आती है सदा,दम न ले तलवार जब तक जान'बिस्मिल'में रहे।" जब बिस्मिल को प्रिवी कौन्सिल से अपील खारिज हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने अपनी एक गजल लिखकर गोरखपुर जेल से बाहर भिजवायी जिसका मत्ला (मुखड़ा) यह था-"मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या,दिल की बरवादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या!"

गोरखपुर में राजघाट पर अन्तिम संस्कार से पूर्व पिता मुरलीधर की गोद में बलिदानी पुत्र बिस्मिल का अन्तिम चित्र
जैसा उन्होंने आत्मकथा में लिखा भी,और उनकी यह तड़प भी थी कि कहीं से कोई उन्हें एक रिवॉल्वर जेल में भेज देता तो फिर सारी दुनिया यह देखती कि वे क्या-क्या करते? उनकी सारी हसरतें उनके साथ ही मिट गयीं!मरने से पूर्व आत्मकथा के रूप में वे एक ऐसी धरोहर हमें सौंप गये जिसे आत्मसात् करके हिन्दुस्तान ही नहीं, सारी दुनिया में लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत की जा सकती हैं। यद्यपि उनकी यह अद्भुत आत्मकथा आज इण्टरनेट पर मूल रूप से हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है तथापि यहाँ पर यह बता देना भी आवश्यक है कि यह सब कैसे सम्भव हो सका।
बिस्मिलजी का जीवन इतना पवित्र था कि जेल के सभी कर्मचारी उनकी बड़ी इज्जत करते थे ऐसी स्थिति में यदि वे अपने लेख व कवितायें जेल से बाहर भेजते भी रहे हों तो उन्हें इसकी सुविधा अवश्य ही जेल के उन कर्मचारियों ने उपलब्ध करायी होगी,इसमें सन्देह करने की कोई गुन्जाइश नहीँ। अब यह आत्मकथा किसके पास पहले पहुँची और किसके पास बाद में,इस पर बहस करना व्यर्थ होगा। बहरहाल इतना सत्य है कि यह आत्मकथा ब्रिटिश शासन काल में जितनी बार प्रकाशित हुई, उतनी बार जब्त हुई।
प्रताप प्रेस कानपुर से 'काकोरी के शहीद' नामक पुस्तक के अन्दर जो आत्मकथा प्रकाशित हुई थी उसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त करके अँग्रेजी भाषा में अनुवाद करवाकर समूचे हिन्दुस्तान की खुफिया पुलिस व जिला कलेक्टर्स को सरकारी टिप्पणियों के साथ भेजा था कि इसमें जो कुछ रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने लिखा है वह एक दम सत्य नहीं है।उसने सरकार पर जो आरोप लगाये गये हैं वे निराधार हैं। कोई भी हिन्दुस्तानी,जो सरकारी सेवा में है,इसे सच न माने। इस सरकारी टिप्पणी से इस बात का खुलासा अपने आप हो जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने बिस्मिल को इतना खतरनाक षड्यन्त्रकारी समझ लिया था कि उसकी आत्मकथा से उसे सरकारी तन्त्र में बगावत फैल जाने का भय हो गया था। वर्तमान में यू०पी० के सी०आई०डी० हेडक्वार्टर लखनऊ के गोपनीय विभाग में मूल आत्मकथा कथा का अँग्रेजी अनुवाद आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। बिस्मिल की जो आत्मकथा 'काकोरी षड्यन्त्र' के नाम से वर्तमान पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में तत्कालीन पुस्तक प्रकाशक भजनलाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस,सिन्ध(वर्तमान पाकिस्तान) से पहली बार सन १९२७ में बिस्मिल को फाँसी दिये जाने के कुछ दिनों बाद ही प्रकाशित कर दी थी वह भी 'सरफरोशी की तमन्ना'-भाग तीन में अविकल रूप से सुसम्पादित होकर सन् १९९७ में आ चुकी है।

फाँसी के बाद क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रचण्ड रूप


इलाहाबाद से प्रकाशित अभ्युदय में ४ मई १९२९ के समाचार की झलक
१९२७ में बिस्मिल के साथ ३ अन्य क्रान्तिकारियों के बलिदान ने पूरे हिन्दुस्तान के हृदय को हिलाकर रख दिया। चूँकि ये चारो क्रान्तिकारी समाज के साधारण वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे और उन्होंने कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति या जागीर प्राप्त करने के उद्देश्य से वादि-ए-गुर्बत(काँटों भरी राह) में कदम नहीं रक्खा था अतः उसका पूरे देश के जन मानस पर असर होना स्वाभाविक ही था और वह असर हुआ भी। ९ अगस्त १९२५ के काकोरी काण्ड ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। समूचे देश में स्थान-स्थान पर चिनगारियों के रूप में नई- नई समितियाँ गठित हो गयीं। बेतिया(बिहार) में फणीन्द्रनाथ का 'हिन्दुस्तानी सेवा दल',पंजाब में सरदार भगतसिंह की 'नौजवान सभा' तथा लाहौर (अब पाकिस्तान) में सुखदेव की 'गुप्त समिति' के नाम से कई क्रान्तिकारी संस्थाएँ जन्म ले चुकी थीं। भारतवर्ष के कोने-कोने में क्रान्ति की आग दावानल की तरह फैल चुकी थी। कानपुर से गणेशशंकर विद्यार्थी का 'प्रताप' व गोरखपुर से दशरथप्रसाद द्विवेदी का 'स्वदेश' जैसे अखबार इस आग को हवा दे रहे थे। काकोरी काण्ड के एक प्रमुख क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद,जिन्हें रामप्रसाद 'बिस्मिल' उनके पारे (mercury) जैसे चंचल स्वभाव के कारण 'क्विक सिल्वर' कहा करते थे, पूरे हिन्दुस्तान में भेस बदल कर घूमते रहे और उन्होंने भिन्न-भिन्न समितियों के प्रमुख संगठनकर्ताओं से सम्पर्क करके सारी क्रान्तिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया। ८ व ९ सितम्बर १९२८ में फिरोजशाह कोटला दिल्ली में एच०आर०ए०, नौजवान सभा, हिन्दुस्तानी सेवा दल व गुप्त समिति का विलय करके एच०एस०आर०ए० नाम से एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का गठन हुआ जिसे बिस्मिल के बताये रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराना था किन्तु ब्रिटिश साम्राज्यशाही के दमनचक्र ने वैसा नहीं होने दिया।
३० अक्तूबर १९२८ को 'साइमन कमीशन' का विरोध करते हुए लाला लाजपतराय डी०एस०पी० जे०पी०साण्डर्स के बर्बर लाठीचार्ज से बुरी तरह घायल हुए और १७ नवम्बर १९२८ को उनकी मृत्यु हो गयी। इस घटना से आहत एच०एस०आर०ए० के चार युवकों ने १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर जाकर दिन दहाड़े साण्डर्स का वध कर दिया और फरार हो गये। साण्डर्स हत्या-काण्ड के प्रमुख अभियुक्त सरदार भगतसिंह को पुलिस पंजाब में तलाश रही थी जबकि वह यूरोपियन के भेस में कलकत्ता जाकर बंगाल के क्रान्तिकारियों से बम बनाने की तकनीक और सामग्री जुटाने में लगे हुए थे। दिल्ली से २० मील दूर ग्रेटरनोएडा एक्सप्रेस वे के निकट स्थित नलगढा गाँव में रहकर भगतसिंह ने दो बम तैयार किये और बटुकेश्वर दत्त के साथ जाकर ८ अप्रैल १९२९ को दिल्ली की अलीपुर रोड स्थित असेम्बली में उस समय विस्फोट कर दिया जब सरकार जन विरोधी कानून पारित करने जा रही थी। इस विस्फोट ने बहरी सरकार पर भले ही असर न किया हो परन्तु समूचे देश में अद्भुत जन-जागरण का काम अवश्य किया।
बम विस्फोट के बाद दोनों ने 'इंकलाब! जिन्दाबाद!!' व 'साम्राज्यवाद! मुर्दाबाद!!' के जोरदार नारे लगाये और एच०एस०आर०ए० के पैम्फलेट हवा में उछाल दिये। असेम्बली में मौजूद सुरक्षाकर्मियों- सार्जेण्ट टेरी व इन्स्पेक्टर जॉनसन ने उन्हें वहीं गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। यह सनसनीखेज खबर अगले ही दिन समूचे देश में फैल गयी। ४ मई १९२९ के 'अभ्युदय' में इलाहाबाद से समाचार छपा-ऐसेम्बली का बम केस: काकोरी केस से इसका सम्बन्ध है। आई०पी०सी० की दफा ३०७ व एक्सप्लोसिव एक्ट की धारा ३ के अन्तर्गत इन दोनों को उम्र-कैद का दण्ड देकर अलग-अलग जेलों में रक्खा गया। जेल में राजनीतिक बन्दियों जैसी सुविधाओं की माँग करते हुए जब दोनों ने भूख हड़ताल शुरू की तो इन दोनों का सम्बन्ध साण्डर्स-वध से जोड़ते हुए एक और केस कायम किया गया जिसे 'लाहौर कांस्पिरेसी केस'नाम दिया गया। इस केस में कुल २४ लोग नामजद हुए,इनमें से ५ फरार हो गये,१ को पहले ही सजा हो चुकी थी, शेष १८ पर केस चला। इनमें से एक-यतीन्द्रनाथ दास की बोर्स्टल जेल लाहौर में लगातार भूख हड़ताल करने से मृत्यु हो गयी,शेष बचे १७ में से ३ को फाँसी,७ को उम्रकैद,एक को ७ वर्ष व एक को ५ वर्ष की सजा का हुक्म हुआ। तीन को ट्रिब्यूनल ने रिहा कर दिया बाकी बचे तीन अभियुक्तों को अदालत ने छोड़ दिया।

बिस्मिल के सच्चे उत्तराधिकारी चन्द्रशेखर आजाद के मृत शरीर को निहारते अंग्रेज अधिकारी,साइकिल पेड़ के पीछे खड़ी है।
फाँसी की सजा पाये तीनों अभियुक्तों-भगतसिंह,राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर दिया। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आजाद ने इनकी सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे सीतापुर जेल में गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद जाकर जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास 'आनन्द भवन' में जाकर मिले और उनसे यह आग्रह किया कि वे गान्धीजी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरूजी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की। नेहरू ने गुस्सा होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर निकले और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क मे अपने एक मित्र सुखदेवराज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई।यह २७ फरवरी १९३१ की घटना है। २३ मार्च १९३१ को निर्धारित समय से १३ घण्टे पूर्व भगतसिंह्,सुखदेव व राजगुरु को लाहौर की सेण्ट्रल जेल में शाम को ७ बजे फाँसी दे दी गयी। यह जेल मैनुअल के नियमों का खुला उल्लंघन था,पर कौन सुनने वाला था? इन तीनों की फाँसी का समाचार मिलते ही पूरे देश में मारकाट मच गई। कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़क उठा जिसे शान्त करवाने की कोशिश में क्रान्तिकारियों के शुभचिन्तक गणेशशंकर विद्यार्थी भी शहीद हो गये। इस प्रकार दिसम्बर १९२७ से मार्च १९३१ तक एक-एक कर देश के ११ नरसिंह् आजादी की भेंट चढ गये।

रामप्रसाद 'बिस्मिल' के व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाशित ग्रन्थावली सरफरोशी की तमन्ना: "A Monumental Work"- Said A. B. Vajpeyi Ex. P.M. of India
यह तो थी उत्तर भारत में क्रान्तिकारी गतिविधियों की संक्षिप्त गाथा, अब जरा बंगाल की घटनाओं का लेखा-जोखा भी इतिहास के पटल पर रख दिया जाये तो बेहतर रहेगा क्योंकि एच०आर०ए० में बंगाल के क्रान्तिकारी भी शामिल थे जिनमें से एक राजेन्द्र लाहिड़ी को निर्धारित तिथि से २ दिन पूर्व १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी देने का कारण केवल यह था कि बंगाल के क्रान्तिकारियों ने फाँसी की निश्चित तिथि से १ दिन पूर्व अर्थात १८ दिसम्बर १९२७ को ही राजेन्द्र लाहिड़ी को गोण्डा जेल से छुड़ा लेने की योजना बना ली थी, जिसकी सूचना सी०आई०डी० ने सरकार को दे दी थी। १३ जनवरी १९२८ को मणीन्द्रनाथ बनर्जी ने चन्द्रशेखर आजाद के उकसाने पर अपने सगे चाचा को,जिन्हें काकोरी काण्ड में अहम भूमिका के कारण डी०एस०पी० के पद पर प्रोन्नत किया गया था, उन्हीं की सर्विस रिवॉल्वर से मौत के घाट उतार दिया। दिसम्बर १९२९ में मछुआ बाजार गली स्थित निरंजन सेनगुप्ता के घर छापा पड़ा,जिसमें २७ क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर केस कायम हुआ और ५ को कालेपानी की सजा दी गई। १८ अप्रैल १९३० को मास्टर सूर्यसेन के नेतृत्व में चिटगाँव शस्त्रागार लूटने का प्रयास हुआ जिसमें सूर्यसेन व तारकेश्वर दस्तीगार को फाँसी एवम् १२ अन्य को उम्र-कैद हुई। ८ अगस्त १९३० को के०के०शुक्ला ने झाँसी के कमिश्नर स्मिथ पर गोली चला दी, उसे मृत्यु-दण्ड मिला। २७ अक्तूबर १९३० को युगान्तर पार्टी के सदस्यों ने सुरेशचन्द्र दास के नेतृत्व में कलकत्ता में तल्ला तहसील की ट्रेजरी लूटने का प्रयास किया,सभी पकड़े गये और कालेपानी की सजा हुई। अप्रैल १९३१ में मेमनसिंह डकैती डाली गई जिसमें गोपाल आचार्य, सतीशचन्द्र होमी व हेमेन्द्र चक्रवर्ती को उम्रकैद की सजा मिली। इन घटनाओं की बहुत लम्बी सूची है जो 'सरफरोशी की तमन्ना' के भाग एक में पृष्ठ १५५ से लेकर १६१ तक विस्तार से दी गयी है।

"मरो नहीं, मारो" १९४२ में लालबहादुर शास्त्री का नारा जिसने क्रान्ति को प्रचण्ड किया
इन सब घटनाओं का काँग्रेस पार्टी पर भी व्यापक असर पडा। सुभाषचन्द्र बोस जैसे नवयुवक गान्धीजी की नीतियों का मुखर विरोध करने लगे थे। जो गान्धीजी सन् १९२२ से १९२७ तक राजनीति के पटल से एकदम अदृश्य हो चुके थे वही गान्धीजी बिस्मिल व उनके साथियों के बलिदान के बाद फिर से तेवर बदलते हुए काँग्रेस में अपनी मनमर्जी का अध्यक्ष चुनवाने और मनचाही नीतियाँ लागू करवाने लगे थे। उनसे तंग आकर सुभाषचन्द्र बोस ने लगातार दो बार १९३८ के त्रिपुरी व १९३९ के हरिपुरा-चुनाव में काँग्रेस अध्यक्ष का पद जीत कर गान्धीजी को आइना दिखाने का दुस्साहस किया था। किन्तु गान्धीजी ने काँग्रेस वर्किंग कमेटी में लॉबीइंग करके सुभाष को तंग करना शुरू किया जिससे दुखी होकर उन्होंने काँग्रेस छोड़ दी और फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली। उसके बाद जब उन्हें लगा कि गान्धीजी सरकार से मिलकर उनके काम में रोड़ा अटकाते ही रहेंगे तो उन्होंने एक दिन देश छोड़ दिया और जापान पहुँचकर आई०एन०ए० अर्थात् आजाद हिन्द फौज की कमान सम्हाल ली।
दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को 'दिल्ली चलो' का नारा दिया, गान्धीजी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए ८ अगस्त १९४२ की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को 'भारत छोड़ो' व भारतीयों को 'करो या मरो' का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में पूना के आगाखाँ महल में चले गये। ९ अगस्त १९४२ के दिन इस आन्दोलन को लालबहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने प्रचण्ड रूप दे दिया। १९ अगस्त,१९४२ को शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये। ९ अगस्त १९२५ को ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से 'बिस्मिल' के नेतृत्व में 'हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ' के १० जुझारू कार्यकर्ताओं ने 'काकोरी-काण्ड' किया था जिसकी यादगार ताजा करने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष ९ अगस्त को 'काकोरी-काण्ड दिवस' मनाने की परम्परा भगतसिंह ने प्रारम्भ कर दी थी और इस दिन बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे। गान्धीजी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ९ अगस्त १९४२ का दिन चुना था। काश! गान्धीजी १९२२ में चौरीचौरा-काण्ड से घबड़ाकर अपना 'असहयोग आन्दोलन' वापस न लेते तो इतने सारे देशभक्त फाँसी पर झूलकर अपना मूल्यवान जीवन क्यों होम करते ?
९ अगस्त १९४२ को दिन निकलने से पहले ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य गिरफ्तार हो चुके थे और काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। गान्धीजी को सरोजिनीनायडू के साथ पूना स्थित आगाखाँ पैलेस, डॉ० राजेन्द्रप्रसाद को पटना जेल व अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबन्दी का नाटक ब्रिटिश साम्राज्यशाही ने किया था ताकि जनान्दोलन को दबाने में बल-प्रयोग से उन्हें हानि न हो। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनान्दोलन में ९४० लोग मारे गये १६३० घायल हुए,१८००० डी०आई०आर० में नजरबन्द हुए तथा ६०२२९ गिरफ्तार हुए। आन्दोलन को कुचलने के ये आँकड़े सेण्ट्रल असेम्बली में ऑनरेबुल होम मेम्बर ने पेश किये थे।
सन् १९४३ से १९४५ तक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व किया और सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है; देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?' जैसा सम्बोधि-गीत व कदम-कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा; ये जिन्दगी है कौम की,तू कौम पे लुटाये जा!' सरीखे कौमी-तराने फौजी बैण्ड के साथ गाते हुए सिंगापुर के रास्ते कोहिमा(नागालैण्ड) तक आ पहुँचे। किन्तु दुर्भाग्य से जापान पर अमरीकी परमाणु हमले के कारण नेताजी को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। वे विमान से रूस जाने की तैयारी में जैसे ही फारमोसा के ताईहोकू एयरबेस से उड़े कि १८ अगस्त १९४५ को उनके ९७-२ मॉडल हैवी बॉम्बर प्लेन में आग लग गई और उन्हें घायल अवस्था में ताईहोकू आर्मी हॉस्पिटल ले जाया गया जहाँ रात ९ बजे उनकी मृत्यु हुई। इस बात की पुष्टि का दस्तावेज स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास पुस्तक के भाग-३ में ८४६वें पृष्ठ पर दिया गया है।
नेताजी की मौत और आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर मुकदमे की खबर ने पूरे हिन्दुस्तान में तूफान मचा दिया जिसके कारण दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बम्बई बन्दरगाह पर उतरे नौसैनिकों ने बगावत कर दी और १८ फरवरी १९४६ को बम्बई से शुरू हुआ यह 'नौसैनिक विद्रोह' देश के सभी बन्दरगाहों व महानगरों में फैल गया। २१ फरवरी १९४६ को ब्रिटिश आर्मी ने बम्बई पहुँच कर हमारे नौसैनिकों पर गोलियाँ चलायीं जिसके परिणामस्वरूप केवल २२ फरवरी १९४६ को ही २२८ लोग मारे गये तथा १०४६ घायल हुए। यह उस समय का सबसे भयंकर दमन था जो क्रूर ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुस्तान में किया।

बिस्मिल का क्रान्ति-दर्शन


पूर्व प्रधानमन्त्री भारत सरकार श्रीयुत् अटल बिहारी वाजपेयी 19 दिसम्बर 1996 को दिल्ली में सरफरोशी की तमन्ना (शोध-ग्रन्थावली) का विमोचन करते हुए

भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु राम प्रसाद'बिस्मिल' एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर 'हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ' के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक-से-बढकर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे किन्तु अहिंसा की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र उन लोगों ने किया जिनके नाम का सिक्का आज भी पूरे भारत में चलता है। उन्हीं का चित्र भारतीय पत्र मुद्रा (Paper Currency) पर दिया जाता है। अमरीकी डॉलर के आगे भारतीय मुद्रा का क्या मूल्य है? क्या किसी बुद्धिजीवी ने कभी इस मुद्दे पर विचार किया? एक व दो अमरीकी डॉलर पर आज भी जॉर्ज वाशिंगटन का ही चित्र छपता है जिसने अमरीका को अँग्रेजों से मुक्त कराने में प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने युद्ध लड़ा था। बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् १९१६ में छपी थी जिसका नाम था-अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास। बिस्मिल के जन्म शताब्दी वर्ष:१९९६-१९९७ में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन किसी और ने नहीं, बल्कि भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया और ४ खण्डों में प्रकाशित जिस ग्रन्थावली सरफरोशी की तमन्ना में यह पुस्तक संकलित की गयी थी उसको राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो० राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) का आशीर्वाद भी प्राप्त था। इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं। परन्तु इसे भारतवर्ष का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आज तक किसी भी सरकार ने बिस्मिल के क्रान्ति-दर्शन को समझने व उस पर शोध करवाने का प्रयास तक नहीं किया जबकि गान्धी जी द्वारा १९०९ में विलायत से हिन्दुस्तान लौटते समय पानी के जहाज पर लिखी गयी पुस्तक 'हिन्द-स्वराज' पर शोध व संगोष्ठियाँ करके सरकारी कोष का अपव्यय किया जा रहा है

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी हिन्दी साहित्य पर एक प्रामाणिक पुस्तक
देखा जाये तो आज बिस्मिल के सपनों का भारत निर्माण करके इस देश के सोये हुए स्वाभिमान को जगाने की परम आवश्यकता है। काँग्रेस की सरकार हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात तो बहुत करती है परन्तु जनता में अशफाक और बिस्मिल की कभी कोई चर्चा या उदाहरण प्रस्तुत नहीं करती। भारतीय जनता पार्टी को भी स्वातन्त्र्य समर के सेनापति राम प्रसाद'बिस्मिल' की याद नहीं आती,जिनकी आत्मकथा किसी रामचरितमानस से कम नहीं। देखा जाये तो सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी ढपली पर अपना राग अलापने में लगे हुए हैं ताकि किसी तरह से सत्ता का स्वाद चखने को नहीं,निर्लज्जतापूर्वक भोगने को मिलता रहे । १५ अगस्त १९४७ का सूर्य उगने से पूर्व रात के गहन अँधेरे में भारत को स्वाधीनता तो मिल गयी,स्वतन्त्रता नहीं। आज भी यहाँ की ७५ प्रतिशत जनता चौपट राजा की अन्धेर नगरी में भटकने के लिये विवश है। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के स्थान-स्थान पर स्टेचू लगाकर वोट जुटाने का पुतला तो खडा कर दिया गया है परन्तु कोई यह समझने या समझाने की कोशिश नही करता कि भारत का संविधान विदेशियों की नकल करके क्यों बनाया गया? किसी भी पार्टी के प्रत्याशी को 'स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास' नहीं पढाया जाता। चुनाव जीतने के लिये रेस के घोड़ों की तरह प्रत्याशियों का चयन किया जाता है। आज तक हमारे देश की कोई राष्ट्र-भाषा नहीं है, सभी सरकारी-गैरसरकारी काम-काज अँग्रेजी में होता है। देश में अँग्रेजी शिक्षा के नाम पर सभी स्कूलों ने लूट मचा रखी है और ऐसे स्कूलों से पढकर आये अधिकांश छात्र किसी छोटे-मोटे काल-सेण्टर में काम करते-करते या तो कोल्हू के बैल बनकर रह जाते हैं या फिर किसी धोबी के कुत्ते की तरह न घर के रहते हैं न घाट के। हजारों की संख्या में भारत आ चुकी विदेशी कम्पनियाँ अँग्रेजी पढे-लिखे नवयुवकों को आकर्षक वेतन का लालच देकर उनके खून पसीने से अपने देश की अर्थ-व्यवस्था मजबूत करने में लगी हुई हैं। एक ईस्ट इन्डिया कम्पनी ने हमें ३०० वर्ष से अधिक समय तक गुलाम बनाकर रक्खा अब तो ये कम्पनियाँ हजारों की संख्या में हैं, भगवान जाने इस देश का क्या होगा?
यह बात हमारे देश के कितने नवयुवक जानते हैं कि जब यहाँ सन् १६०० में टॉमस रो नाम का अँग्रेज व्यापार करने का प्रार्थना-पत्र लेकर आया था तब मुगल बादशाह जहाँगीर का शासन था और १९४२ में जब 'ट्रान्सफर ऑफ पावर एग्रीमेण्ट' तैयार किया गया तब एलेन ऑक्टोबियन ह्यूम नामक एक अँग्रेज द्वारा १८८५ में स्थापित काँग्रेस में गान्धीजी की तानाशाही चल रही थी। उन्हीं के मानसपुत्र जवाहर लाल नेहरू ने लॉर्ड माउण्टवेटन के साथ उस 'सत्ता हस्तान्तरण समझौते' पर हस्ताक्षर किये थे और ब्रिटिश सरकार को यह वचन देकर सत्ता प्राप्त की थी कि जैसे अँग्रेज यहाँ पर शासन चला रहे थे वैसे ही उनकी पार्टी काँग्रेस भी चलायेगी। संविधान में देश का नाम बदल कर 'इण्डिया' दैट इज 'भारत' कर दिया,गान्धी जी को राष्ट्रपिता घोषित करके उनका चित्र भारतीय मुद्रा पर छाप दिया, रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा सन् १९११ में जॉर्ज पंचम की स्तुति प्रशस्ति में लिखा व गाया गया गीत 'भारत भाग्य विधाता' राष्ट्र-गान घोषित कर दिया और काँग्रेस को करप्शन की खुली छूट दे दी। लोकतन्त्र के नाम पर सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को लूटतन्त्र बना दिया और शहादत के नाम पर केवल गान्धी-नेहरू परिवार की कुर्बानियों को तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत किया। ऐसी परिस्थितियों में फिर से आम आदमी को राम प्रसाद 'बिस्मिल' की रचनाओं का वास्तविक क्रान्ति-दर्शन समझाने की आवश्यकता है।

बिस्मिल के साहित्य का अनुसन्धान व प्रकाशन


रामप्रसाद 'बिस्मिल' की प्रकाशित पुस्तकों के अनुसन्धान की पुष्टि करता हुआ फोटो
भारत और विश्व साहित्य पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में २७ फरवरी १९८५ को विग्यान भवन, नई दिल्ली में कलम और पिस्तौल के पुरोधा-पं० रामप्रसाद बिस्मिल (पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल': ए वारियर ऑफ पेन ऐन्ड पिस्टल) शीर्षक से एक नवयुवक ('Krant' M.L.Verma) ने जब अपना आलेख प्रस्तुत किया तो उस पर किसी भारतीय लेखक ने यह टिप्पणी की थी कि बिस्मिल कौन से इतने बड़े साहित्यकार थे जिन पर आप यह आलेख यहाँ पढ रहे हैं। आप को यह लेख पढने की अनुमति किसने दी? उनकी इस टिप्पणी का उस नवयुवक ने यह उत्तर दिया कि यह प्रश्न आप आयोजकों से ही पूछें तो उचित रहेगा। मंच पर उपस्थित उस परिचर्चा के अध्यक्ष प्रो० आर०बी० जोशी उन लेखक महोदय को इसका उत्तर देने ही वाले थे कि उसी संगोष्ठी में उपस्थित एक अन्य नवयुवक उन लेखक महोदय से उलझ गया और अँग्रेजी में उन सज्जन को इतनी खरी-खोटी सुनाई कि वे पसीने-पसीने हो गये। यह दृश्य जिन्होंने देखा उन्होंने उस युवक से संगोष्ठी-कक्ष के बाहर आकर कहा कि राम प्रसाद 'बिस्मिल' को लोग केवल एक क्रान्तिकारी के रूप में ही जानते हैं, साहित्यकार के रूप में नहीं। बेहतर होगा कि बिस्मिल के जब्तशुदा साहित्य का अनुसन्धान व उसके प्रकाशन की चिन्ता करो। संयोग से उस संगोष्ठी में काकोरी काण्ड के सजायाफ्ता अभियुक्त व सुप्रसिद्ध लेखक मन्मथनाथ गुप्त भी उपस्थित थे। उन्होंने तो यहाँ तक कहकर उस युवक की हौसला अफजाई की कि तुमने तो आज भगतसिंह की तरह बम फोड़ दिया! बस,यहीं से बिस्मिल के साहित्य पर अनुसन्धान का मार्ग प्रशस्त हुआ।
बिस्मिल के जीवन में ११ का अंक बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा। ११ जून १८९७ को दोपहर११ बजकर ११ मिनट पर उनका जन्म हुआ। संयोग से उस दिन भारतीय तिथि ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी जिसे हिन्दू पंचांग में निर्जला एकादशी भी कहा जाता है। उनकी मृत्यु जो कि एक दम अस्वाभाविक योग के कारण फाँसी के फन्दे पर झूल जाने से हुई थी वह तिथि भी भारतीय पंचांग के अनुसार पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी ही थी जिसे सुफला एकादशी भी कहते हैं। देखा जाये तो उनके जीवन का एक-एक क्षण परमात्मा के द्वारा पूर्व-निश्चित था, उसी के अनुसार समस्त घटनायें घटित हुईं। उन्होंने १९ वर्ष की आयु में क्रान्ति के कण्टकाकीर्ण मार्ग में प्रवेश किया और ३० वर्ष की आयु में कीर्तिशेष होने तक अपने जीवन के मूल्यवान ११ वर्ष देश को स्वतन्त्र कराने में लगा दिये। क्या अद्भुत संयोग है कि उन्होंने कुल मिलाकर ११ पुस्तकें भी लिखीं जो उनके सम्पूर्ण जीवन-दर्शन का ऐसा दर्पण है जिसमें आने वाली पीढियों को अपना स्वरूप देखकर उसे सँवारने का प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिये। आज तक राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जो भी प्रामाणिक पुस्तकें पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं, उनका विवरण इस प्रकार है:
१-सरफरोशी की तमन्ना (भाग एक) = क्रान्तिकारी बिस्मिल : व्यक्तित्व और कृतित्व २-सरफरोशी की तमन्ना (भाग दो) = अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जब्तशुदा आग्नेय कवितायें ३-सरफरोशी की तमन्ना (भाग तीन) = अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की मूल आत्मकथा-निज जीवन की एक छटा, १९१६ में जब्त अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास, बिस्मिल द्वारा बाँग्ला से हिन्दी में अनूदित यौगिक साधन (मूल रचनाकार: अरविन्द घोष), तथा बिस्मिल द्वारा मूल अँग्रेजी से हिन्दी में लिखित संक्षिप्त जीवनी कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी । ४-सरफरोशी की तमन्ना (भाग चार) = क्रान्तिकारी जीवन बिस्मिल के लेख व उनके व्यक्तित्व पर अन्य क्रान्तिकारियों के लेख । (उपरोक्त चारो खण्डों का संकलन, शोध एवं सम्पादन: मदन लाल वर्मा 'क्रान्त', प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली से प्रथम वार सन् १९९७ में प्रकाशित)
५-क्रान्तिकारी बिस्मिल और उनकी शायरी = संकलन/अनुवाद: 'क्रान्त'(ISBN: 978-88178-23-3) प्रखर प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित । ६-बोल्शेविकों की करतूत (उपन्यास) = शोध एवं सम्पादन: मदन लाल वर्मा 'क्रान्त' (ISBN: 81-7783-129-1) ७-मन की लहर (कवितायें) = शोध एवं सम्पादन: मदन लाल वर्मा 'क्रान्त' (ISBN: 81-7783-127-5) ८-क्रान्ति गीतांजलि (कवितायें) = शोध एवं सम्पादन: मदन लाल वर्मा 'क्रान्त' (ISBN: 81-7783-128-3) (उपरोक्त तीनों पुस्तकें स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रवीण प्रकाशन, २३, अन्सारी रोड, दरियागंज, दिल्ली ने प्रकाशित कीं।)
इनके अतिरिक्त मदन लाल वर्मा 'क्रान्त' द्वारा लिखित व प्रवीण प्रकाशन,दिल्ली से प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास (३ भाग) के भाग-दो (ISBN: 81-7783-120-8) में बिस्मिल की जिन पुस्तकों का विवरण मिलता है, उनके नाम इस प्रकार हैं:
१-मैनपुरी षड्यन्त्र, २-स्वदेशी रंग, ३-चीनी-षड्यन्त्र(चीन की राजक्रान्ति), ४-तपोनिष्ठ अरविन्द की कैद-कहानी, ५-अशफाक की याद में, ६-सोनाखान के अमर शहीद-'वीरनारायण सिंह', ७-जनरल जार्ज वाशिंगटन तथा ८-अमरीका कैसे स्वाधीन हुआ? बहरहाल इन पुस्तकों के अनुसन्धान व प्रकाशन की चिन्ता बुद्धिजीवियों व प्रकाशकों को अवश्य करनी चाहिये।

राम प्रसाद 'बिस्मिल' की अमर रचना

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित सुप्रसिद्ध गीत वन्दे मातरम् की लोकप्रियता के बाद भारतवर्ष के महान क्रान्तिकारी पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल'की गजल सरफरोशी की तमन्ना ही वह अमर रचना है जिसे गाते हुए कितने ही देशभक्त फाँसी के तख्ते पर झूल गये। वह सम्पूर्ण रचना यहाँ दी जा रही है :

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है? वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ!हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?
एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत,देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है।
रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में, लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंजिल में है।
अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,एक मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है ।
ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफ़िल में है।
खींच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है।
है लिये हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
हाथ जिनमें हो जुनूँ , कटते नही तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है , सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
हम तो निकले ही थे घर से बाँधकर सर पे कफ़न,जाँ हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी महमाँ मौत की महफ़िल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
यूँ खड़ा मकतल में कातिल कह रहा है बार-बार, "क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?"
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब, होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज।
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है ! सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ।
जिस्म वो क्या जिस्म है जिसमें न हो खूने-जुनूँ, क्या वो तूफाँ से लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है । देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है ??
-पं० रामप्रसाद'बिस्मिल'
 

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