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’’नादिरशाह ने देश को केवल एक बार लूटा परंतु ब्रिटिश हमें हर दिन लूटते हैं। हमारे खून को चूसते हुए प्रति वर्ष 4.5 मीलियन डालर की संपदा देश के बाहर खींच ली जाती है। ब्रिटिश को तत्काल ही भारत छोड़ देना चाहिए।’’ सिंध टाईम्स ने मई 20, 1884 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के जन्म से 1 वर्ष और 1942 के ’’भारत छोड़ो’’ आंदोलन की शुरूआत से 58 वर्ष पहले लिखा था ।

केवल इंडियन नेशनल कांग्रेस ने एम.के.गांधी के नेतृत्व सम्हालने पर राष्ट्र्ीय भावनाओं को जगाया था इस विचार के विपरीत राष्ट्र्ीय संवेदनायें भारत में 1857 के लगभग रहीं और ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय राष्ट्र्ीयता विभिन्न शक्लों में लगातार प्रगट होती रही।

विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार

सिकारपुर सिंध में, आर्थिक राष्ट्र्ीयता का स्वरूप दिखलाई दिया जब 1888 में स्थापित प्रीतम धर्मसभा ने अनेक सामाजिक सुधारों को प्रारंभ किया। उसने ’’स्वदेशी’’ शक्कर, साबुन, और कपड़ा मिलों की स्थापना की प्रेरणा दी थी। सभा के साहित्य को इतना क्रांतिकारी समझा गया कि 1909 में, उसके 3 सदस्योंः सेठ चेतूमल, वीरूमल बेगराज और गोविंद शर्मा को ब्रिटिश प्रशासन ने 5 वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनाई थी।

1905 में, ब्रिटिश द्वारा साम्प्रदायिक आधार पर बंग भंग ने देशव्यापी स्वदेशी और स्वतंत्राता आंदोलन को प्रेरित किया था। अगस्त 7, 1905 को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा कर दी गई। इस समय इंडियन नेशनल कांग्रेस ने इस कार्यक्रम को सशर्त समर्थन दिया। परंतु एक वर्ष बाद, उग्रवादी नेता महाराष्ट्र् से तिलक, बंगाल से बिपिनचंद्र पाल एवं अरविंदो घोष और पंजाब से लाजपत राय के प्रभाव से 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन ने पहली बार ’’स्वराज’’ अर्थात् स्वशासन संकल्पना की घोषणा की और बहिष्कार आंदोलन को समर्थन देने का आह्वान किया। यद्यपि ’’स्वराज’’ की मांग भारत के लिए संपूर्ण राजनैतिक और आर्थिक आजादी की ओर मात्रा एक कदम था और चूंकि भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बना रहना था, यह वास्तविक स्वतंत्राता की ओर एक महत्वपूर्ण पग था। उसने कई स्थानीय राष्ट्र्वादी संगठनों को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आंदोलन में भाग लेने की और ऐसी दुकानें कायम करने की प्रेरणा दी जहां केवल देश में निर्मित वस्तुओं को ही बेचा जाता था।

पूर्ण स्वतंत्राता के शुरूआती आवाहनः गदर पार्टी का अभ्युदय

ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्राता के आह्वान के लिए 1913 में, प्रथम भारतीय राजनैतिक संगठन, गदर पार्टी भारतीय आप्रवासियों के द्वारा कैलीफोर्निया में, गठित की गई थी। गदर आंदोलन अनेक कारणों से अनोखा था। इसके संस्थापक सदस्यों में सिख बहुसंख्यक थे परंतु गदर आंदोलन प्रादेशिक और धार्मिक अतिश्यता से मुक्त था। वह धर्मांधता और जातिभेदभाव को पूरी तरह से नकारता था। और, कांग्रेस के विपरीत, इसकी सदस्यता मूलरूप से कामगार वर्ग और गरीब किसानों से थी। गदर आंदोलन मंे सिख, मुस्लिम और दलित के साथ हिंदुओं का स्वागत बिना किसी भेदभाव के किया जाता था।

गदर पार्टी का साहित्य ब्रिटिश शासन पीड़ित आम लोगों की दुर्दशा का स्पष्ट वर्णन करता था। प्रथम विश्व युद्ध की शुरूआत का पूर्वानुमान करने में वे सर्वप्रथम थे। भारतीय जनता की औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का वह सही अवसर था इसलिए उन्होंने पूर्ण स्वतंत्राता के आम आंदोलन का नारा दिया था। ’’जंग दा होका’’ युद्ध की घोषणा पोस्टर में प्रथम विश्व युद्ध से संलग्न ब्रिटिश युद्ध गतिविधियों में भारतीय सैनिकों के झौंके जाने की आशंका की चेतावनी भी उन्होंने ही दी थी।

दुर्भाग्य से, कांग्रेस इस अवसर का फायदा न उठा सकी। गांधी जैसे नेता तो ब्रिटिश युद्ध गतिविधियों के समर्थन में यहां तक बढ़ गए कि ब्रिटिश सेना में भारतवासियों के भरती होने का आह्वान किया। गांधी की बेईमान और खुशामदी नीति की न केवल गदर कार्यकत्र्तों ने कटु आलोचना की वरन् अन्य हलकों से भी विरोध शुरू हुआ।

उस समय जब गांधी ’’वार रिक्रूटमेंट मेला’’ को संबोधित कर रहे थे नबावशाह के डा. तुलजाराम खिलनानी वार लोन बाॅड के विरोध में खुली मुहिम चला रहे थे। सिंध बाम्बे प्रिसिडेंसी का हिस्सा था और सिंध कांग्रेस, बाम्बे प्राविंशियल कांग्रेस कमेटी का। जब गांधी ने आॅल इंडिया कांग्रेस कमेटी का चुनाव बंबई प्राविंशियल कांग्रेस कमेटी से लड़ा, सिंध के प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश युद्ध गतिविधि के समर्थन को ध्यान में रखते हुए, उनके चुनाव का विरोध किया था।

तब भी कमोवेश, कांग्रेस उस समय अपेक्षाकृत समझौतावादी संगठन था और गदरवादियों से तीखी आलोचना पाती रहती थी। ब्रिटिश की दमनकारी नौकरशाही में भागीदारी के द्वारा अथवा स्वशासन या सुधारों के लिए ब्रिटिश से वकालत के द्वारा आजादी प्राप्त की जा सकती है - कांग्रेस के इस विचार को गदरवादियों ने अस्वीकार किया था। गदरवादियों को विश्वास था कि बिना किसी भेदभाव के, समाज के सभी वर्गों के साथ किसान एवं कामगार्रों का संघर्षशील जनआंदोलन ही सफल हो सकेगा। उन्होंने न केवल ब्रिटिश शोषण से आजादी की कल्पना की वरन् भूख, बेघरबारी और बीमारी से आजाद भारत की कल्पना की थी। उनकी दृष्टि में नए भारत में धार्मिक अंधविश्वासों और समाज मान्य असमानताओं के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा।

कैलीफोर्निया में गदर आंदोलन शुरू हुआ, पूरी दुनियां में शाखायें स्थापित कीं गईं और 1916 में, उसके साप्ताहिक इस्तहार की 10 लाख प्रतियां प्रकाशित होकर बांटीं जातीं रहीं। जैसे जैसे शक्ति बड़ी उनका आंदोलन आगे बड़ा और पूरे भारत मेें गदर पार्टी की इकाईयां स्थापित करने की योजना को बल मिला। हजारों स्वयंसेवकों ने घर लौटने का यत्न किया और जहां भी संभव हो सका, गदर पार्टी की इकाईयां स्थापित कीं। इस बेहद विप्लववादी आंदोलन के असर को भांपते हुए ब्रिटिश ने कठोर कदम उठाये और आंदोलनकारियों को जा घेरा। सैकड़ों को लाहौर कांस्प्रेसी के 5 केसों में आरोपित किया गया। एक अनुमान के अनुसार 145 गदरवादियों को फांसी पर चढ़ा दिया और 308 को 14 वर्ष से अधिक के लिए कैद की सजा सुनाई। अनेकों को अंदमान के बदनाम काला पानी की सजा दी गई।

ब्रिटिश आर्मी के खासकर भारतीय सैनिकों पर गदरवादियों को सफलता प्राप्त हुई और उनको राजद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। ब्रिटिश ने हांगकांग रेजीमेंट के सैनिकोें को गिरफ्तार किया, गदर बुलेटिन वितरण के लिए कोर्ट मार्शल किया, भारत वापिस भेजा और जेल भेज दिया गया। पेनाॅग की दो रेजिमेंटों ने सैन्यद्रोह किया परंतु सैन्यद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया। जनवरी 1915 में 130 वीं बलूची रेजिमेंट ने विद्रोह किया। इस रेजिमेंट के 200 सैनिकों का कोर्ट मार्शल किया गया, 4 सैनिकों को फांसी दी गई, 69 को आजीवन कारावास और 126 को विभिन्न मियादों के लिए सश्रम जेल भेजा गया। पंडित सोहनलाल पाठक गदर पार्टी के नेताओं में से एक को फरवरी 16, 1906 को, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह भड़काने के लिए मंडालय जेल में फांसी दी गई। इराक और ईरान में भारतीय सैनिकों के बीच गदर पार्टी क्रियाशील थी। उनके काम के परिणाम स्वरूप बसरा में स्थित 15 वीं लेंसरस् ने विद्रोह कर दिया और 64 सैनिकों का कोर्ट मार्शल हुआ। इसी तरह 24 वीं पंजाबी और 22 वीं पहाड़ी रेजीमेंटों ने भी विद्रोह किया था।

परंतु गदरवादियों के विरुद्ध भंयकर दमन शरू करने के बाद भी 1919 में, जनता के क्रांतिकारी असंतोष की लहर को रोकने में ब्रिटिश असमर्थ थे। 1918 के अंतिम और 1919 के शुरू के महिनों ने अभूतपूर्व विशाल हड़ताली आंदोलनों को देखा। बंबई मिल की हड़ताल 1,25,000 कामगारों तक फैल गई थी। 1919 का रोलेट एक्ट जो सैन्य कानून के उपनियमों को विस्तार देता था, के बाबजूद आम प्रदर्शनों की लहर, हड़तालें और नागरिक असंतोष से ब्रिटिश अधिकारियों का सामना हुआ। कामगारों के साहसिक प्रतिरोध से ब्रिटिश सकते में आ गए और उस वर्ष की सरकारी गवर्नमेंट रिपोर्ट ने आश्चर्य से यह चेतावनी पाई कि कैसे हिंदू और मुस्लिम ने एक साथ होकर उनकी शक्ति को चुनौति दी। आश्चर्य नहीं, ब्रिटिश ने बेमिसाल दमनकारी कदम उठाये थे।

जनरल डायर के जलियांनबाग के हत्याकांड के बाद हड़तालों की बाढ़ आ गई। उसने निहत्थे 10,000 बैसाखी मनाने वाले लागों पर 1600 राॅउंड गोलाबारूद से निर्दयी हमला किया। गांधी ने तब भी, दिसम्बर 1919 में ब्रिटिशों को सहयोग देने की वकालत करना जारी रखा जबकि आम भारतवासी का प्रतिरोध जारी था। 1920 के शुरू के दो महिनों ने बड़े पैमाने के प्रतिरोधों को देखा। इन प्रतिरोधों में 15 लाख कामगारों और 200 से अधिक हड़तालों की भागीदारी थी। इस उमड़ते क्रांतिकारी ज्वार के प्रत्युत्तर मंे कांग्रेस के नेतृत्व को अपनी उदारवादिता से ही मुकाबला करना पड़ा। उन्हें अपने कार्यक्रम में कुछ ज्यादा ही संघर्षकारी चेहरा प्रगट करना पड़ा। ’’अहिंसक असहयोग’’ आंदोलन इस प्रकार से कांग्रेस के नेताओं यथा लाजपत राय, मोतीलाल नेहरू, और गांधी की देखरेख में शुरू किया गया।

अन्य विप्लवकारी शक्तियां

कांग्रेस की टांग खिंचाई के बाबजूद दूसरी अन्य विप्लववादी शक्तियों का सम्मिलन हो रहा था। 1920 में कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया का गठन हो चुका था। वह संपूर्ण स्वतंत्राता की मांग कर रही थी। उसने यह भी जोर दिया कि ’’स्वराज’’ के नारे को मूलभूत अर्थ दिया जाना चाहिए और सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन के कार्यक्रम की व्याख्या की जानी चाहिए। इन परिवर्तनों में जमीनदारी प्रथा की समाप्ति, सामंतकालीन दमन और जातीय उत्पीड़न से मुक्ति जैसे अतिआवश्यक प्रश्नों को जोड़ा जाना चाहिए।

आजादी की लड़ाई में भाग लेते हुए कम्युनिस्टों ने कामगारों कोे ट्र्ेड युनियनों में, किसानों को ’’किसान सभाओं’’ ’में और विद्यार्थियों को विद्यार्थी युनियनों में संगठित करने में अपनी क्षमताओं को लगाया। इन्हीं प्रयत्नों के परिणामस्वरूप राष्ट्र्ीय संगठनों जैसे ’’आॅल इंडिया टे्र्ड युनियन कांग्रेस,’’ ’’आॅल इंडिया किसान सभा’’ और ’’आॅल इंडिया स्टुडेंट फेडेरेशन’’ का गठन हुआ और उन्हें शक्तिशाली बनाया गया। कम्युनिस्टों ने प्रगतिशील, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संगठनों यथा ’’प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोशियेशन’’ और ’’इंडियन पीपुल्स थेयटर एसोशियेशन’’ की शुरूआत की।

ब्रिटिश ने कम्युनिज्म को भारत से बाहर कर देने का निश्चय कर लिया था। ठीक उसी प्रकार जैसे उनने गदरवादियों का दमन किया था। ब्रिटिश ने अनुभवहीन कम्युनिस्ट संगठनों का क्रूर दमन करना शुरू किया। कम्युनिस्ट साहित्य को प्रतिबंधित किया जिससे क्रांतिकारी विचारधारा के विस्तार को रोका जा सके। ब्रिटिश शासन ने कम्युनिस्ट आंदोलन के युवा नेतृत्व के विरुद्ध षडयंत्रातापूर्वक केस दायर करना शुरू किया यथा पेशावर 1922 में, कानपुर 1924 में और मेरठ 1929 में। 1920 के दशक में स्थापना के बाद ही कम्युनिस्ट पार्टी को गैरकानूनी घोषित किया और उसे दो दशकों से अधिक गैरकानूनी परिस्थितियों में ही काम करना पड़ा था।

कांग्रेस की पुराणपंथता

अनेक संदर्भों में, गदर पार्टी और भारतीय कम्युनिस्टों का भारतीय परिस्थितियों का विश्लेषण एक समान था और बाबजूद इसके कि वे सरकारी दमन को भुगत रहे थे, उनके सिद्धांत लोगों को लुभाते रहे।

परंतु गदरवादी कांग्रेस के ज्यादा आलोचक थे और कम्युनिस्टों की अपेक्षा कांग्रेस के नेतृत्व को अधिक संशय से देखते थे। कम्युनिस्ट सोचते थे कि जन आंदोलनों का दबाव कांग्रेस को ब्रिटिश के विरुद्ध अधिक दृढ़ता से कार्य करने पर मजबूर करेगा। परंतु उनने संभवतया कांग्रेस को पीछे खींचे रखने वाले पुराणपंथता का कम मूल्यांकन किया था। 1921 में, रिपब्लिकन मुस्लिम नेता हसरत मोहानी विदेशी नियंत्राण से पूर्ण मुक्त ’’स्वराज’’ को संपूर्ण स्वतंत्राता की तरह व्याख्या करते हुए प्रस्ताव रखना चाहते थे। ब्रिटिश को अधिक राहत के लिए गांधी ने प्रस्ताव के विरोध का नेतृत्व किया और उसे रद्द कराया। 1921 में, ब्रिटिश द्वारा लगाये गए उंचे करों के खिलाफ उबलता हुआ गुस्सा था। अनेक जिलों के प्रतिनिधि गांधी के पास ’’नो टेक्स’’ अभियान के नेतृत्व के लिए पहुंचे। गुंटूर में राष्ट्र्ीय नेतृत्व की अनुमति के बिना नो टेक्स अभियान शुरू हो गया परंतु गांधी ने सभी टेक्स समय पर देने का नारा दिया। जो भी हो, केवल बारदोली के जिले में नो टेक्स आंदोलन के नेतृत्व के लिए वे सहमत हो गए थे परंतु जब उनने चैरीचैरा के गांव के किसान विद्रोह की खबर सुनी तो उसेे भी वापिस ले लिया।

गांधी के बारदोली निर्णय ने कांग्रेस के भीतर विवाद पैदा कर दिया। सुभाषचंद्र बोस ने लिखाः ’’’जब जनता का गुस्सा उबाल खा रहा था पीछे हटने की घोषणा राष्ट्र्ीय आपदा से कम न थी। महात्मा के प्रमुख लेफ्टीनेंट देशबंधुदास, मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपत राय, जो जेल में थे, ने आम गुस्सा सहा। मैं देशबंधु के साथ था और मैंने देखा कि वे गुस्से और दुख में थे।’’ दी इंडियन स्ट्र्गल से उद्धृत, पृष्ठ 90।

मोतीलाल नेहरू, लाजपत राय और दूसरों ने गांधी को उनके निर्णय के विरोध में लम्बे और गुस्से भरे खत भेजे। गांधी ने उत्तर दिया था कि जेल में आदमी ’’नागरिक रूप से मृत’’ थे और उन्हें नीति के संबंध में कहने का अधिकार नहीं। इस गंभीर जन विरोधी निर्णय के साथ कांग्रेस की छवि बड़ी खराब हुई। गांधी ने स्वीकारा कि कांग्रेस की एक करोड़ की सदस्यता की घोषणा के स्थान पर उसके संपर्क में बमुश्किल दो लाख लोग ही गिने जा सके थे।

इस प्रकार से यह आवश्यक हो गया था कि नौजवान क्रांतिकारी दूसरी और विप्लववादी ताकतों की ओर मुड़ते। एम.एन.राय जैसे लोग ब्रिटिश विरोध के लिए सशस्त्रा संघर्ष के गठन की बात से आकर्षित हुए और उन्होंने रासबिहारी बोस से हाथ मिलाया कि विदेश में इस काम के लिए समर्थन पाया जा सके। दूसरों के लिए गदर पार्टी के संदेशों ने मानों तार झंकृत कर दिये। गदरवादियों का प्रभाव खासकर पंजाब में पैदा हुआ। युवा और चहेते शहीद भगतसिंह गदर समर्थकों के परिवार में पैदा हुए थे और उनके संदेश से बहुत प्रभावित थे। 1925 में, शहीद भगतसिंह द्वारा नौजवान भारत सभा शुरू की गई थी। उसने ’’इंकलाब जिंदाबाद’’ का प्रचलित नारा दिया था। पंजाब में 1925 में, गदर समर्थकों ने कृति किसान पार्टी की स्थापना की। कृति पार्टी ने नौजवानों के बीच काम किया और नौजवान भारत सभा से नजदीकी संबंध बनाये, भगतसिंह के ’’कृति’’ उर्दू संस्करण में काम करते हुए। गदरवादियों के समान कृति पार्टी ने भी समाज के हर श्रेणी से अपने सदस्य बनाये। उसने धार्मिक अवरोधों को तोड़ा और सिख, हिंदू और मुस्लिम सभी समुदायों से नेता चुने।

1920 के उत्तरार्ध में, कांग्रेस द्वारा किसी भी महत्वपूर्ण जन आंदोलन शुरू न कर सकने पर भी, ब्रिटिश शासन का विरोध वर्कर्स् एण्ड पीजेंट्स पार्टी और लड़ाकू युनियनों, गिरनी कामगार युनियन या बंबई की सूती कारखाने की रेड फ्लेग युनियन की ओर से बड़े तौर पर हुआ। 1928 के अधिवेशन में, संपूर्ण स्वतंत्राता की मांग से हटाते हुए कांग्रेस फिर अपने पुरांणपंथता को ओड़े रही। सुभाषचंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू की क्रांतिकारी मांगों पर गांधी छाये रहे। तब भी, 1929 का साल किसानों के विप्लवों और हड़तालों का महत्वपूर्ण साल रहा। यह वही वर्ष था जब भूमिगत क्रांतिकारियों के छोटे छोटे गुटों ने पुलिस स्टेशन, ब्रिटिश सेना के केंपों और ब्रिटिश दमन के स्थानों पर आक्रमण किए। अधिकांश क्रांतिकारी पकड़े गए। उन्हें या तो फांसी दी गई या फिर काले पानी की कठोर सजा।

सशस्त्र क्रांतिकारियों का प्रादुर्भाव

शुरू में सभी सशस्त्रा क्रांतिकारियों ने उत्साहपूर्वक अहिंसक असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। परंतु जब गांधी ने अचानक असहयोग आंदोलन निलंबित कर दिया युवा क्रांतिकारियों ने दूसरे नेताओं की ओर रूख किया। 1904 में व्ही.डी.सावरकर ने ’’अभिनव भारत’’ का गठन क्रांतिकारियों की गुप्त संस्था के रूप में किया। ’’अनुशीलन समिति’’ और ’’युगांतर’’ ऐसी ही दो संस्थायंे थीं। उनने ब्रिटिश शासन का सशस्त्रा विरोध करने का विचार प्रचारित किया और मदाम कामा और अजीतसिंह के साथ अंतरराष्ट्र्ीय केंद्र स्थापित किये। यूरोप में संघर्ष का प्रतिनिधित्व श्यामजी कृष्णा वर्मा और कुछ दूसरों के द्वारा लंदन में एक शाखा स्थापित करते हुए हुआ।

कांग्रेस की अकर्मन्यता से उत्तर भारत में क्रांतिकारी निराश हुए और उनका मोह भंग हुआ। वे पहले थे जिनने बुजुर्ग नेताओं जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, जोगेश चटर्जिया और सचिन्द्रनाथ सांयाल को पहिचाना। उनकी पुस्तक ’’बंदी जीवन’’ क्रांतिकारी आंदोलन में पाठ्य पुस्तक मानी जाती रही। वे अक्टूवर, 1924 को कानपुर में मिले और औपनिवेशिक शासन को सशस्त्रा क्रांति द्वारा उखाड़ने के लिए हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोशियेशन /सेना/ का गठन किया।

सशस्त्रा संघर्ष के लिए साहसी और जोखिमी भिड़ंतों की जरूरत थी। स्वयंसेवकों की भरती, प्रशिक्षण और हथियारों की प्राप्ति के लिए धन की जरूरत बनी रहती थी। इसलिए ही, ब्रिटिश राजकोष की डकैतियां की जातीं थीं। 9 अगस्त, 1925 को दस व्यक्तियों ने लखनउ के पास काकोरी गांव पर 8 डाउन ट्र्ेन को रोका जिससे रेलवे की धन राशि को प्राप्त किया जा सके। ब्रिटिश कार्यवाही कठोर और तत्काल हुई। असफाक उल्लाखान, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशनसिंह और राजेंद्र लाहरी को फांसी पर लटका दिया गया, चार अन्य लोगों को अंडमान आजीवन कारावास के लिए भेजा और सात को लम्बे समय के लिए जेल की सजा सुनाई। उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के लिए काकोरी केस बड़ा बुरा सिद्ध हुआ परंतु वह कोई प्राणनाशक आघात नहीं था। युवा विजयकुमार सिन्हा, शिव वर्मा और जयदेव कपूर उत्तर प्रदेश में और भगतसिंह, भगवती चरण वोहरा और सुखदेव पंजाब में ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन /सेना/ का पुनर्गठन चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में किया। इसी समय वे समाजवाद के सिद्धांतों से आकर्षित हुए। दिल्ली की 1 सितम्बर, 1928 की बैठक में, नये सामूहिक नेतृत्व ने समाजवाद को अपना लक्ष्य स्वीकार किया और अपने संगठन का नाम हिंदुस्तान सोशियलिस्ट रिपब्लिकन एसोशियेशन /सेना/ में बदल दिया।

अप्रेल 8, 1929 को हिंदुस्तान सोशियलिस्ट रिपब्लिकन एसोशियेशन /हि.स.प्र.स./ ने दो दमनकारी पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्र्ेड डिस्प्यूट बिल को पारित करने के विरोध में सेंट्र्ल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फंेकने की योजना पर काम शुरू किया। परंतु, बम फेंकना किसी के जीवन को क्षति पहंुचाने के उद्देश से नहीं था। इस साहसपूर्ण कदम द्वारा भारतीय जनगण को जगाना और उत्साहित करना था। उसका उद्देश ’’बहरे को सुनाना’’ था, गिरफ्तार होकर और नए एवं स्वतंत्रा भारत के अपने विचारों और स्वप्नों के प्रचार के लिए ट्र्ायल कोर्ट का उपयोग करना था।

भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर एसेम्बली बम केस चलाया गया। बाद में सुखदेव, राजगुरू और दूसरे दसियों क्रांतिकारियों पर विख्यात षड़यंत्राकारी केस चलाये गये। कोर्ट में, उनकी दृढ़ता और निर्भयता धरोहरें बनीं। हर रोज ’’इंकलाब जिंदाबाद’’, ’’डाउन, डाउन विद इम्पीरियलिज्म’’ नारों के साथ कोर्ट में वे प्रवेश करते और ’’सरफरोशी की तमन्ना हैै’’ तथा ’’मेरे रंग दे बसंती चोला’’ जैसे गानों को गाते।

मार्च 1931 में, राजगुरू, सुखदेव और भगतसिंह को ब्रिटिश ने आम जनता के तीव्र विरोध के बाबजूद फांसी पर लटका दिया। भगतसिंह देश का चहेता नायक बना और उसकी फांसी पूरे देश में वेदना और दुख का उद्गार बनी। आंदोलन को बढ़ाने के लिए आम जनता के गुस्से को क्रांग्रेस उपयोग में ला सकती थी परंतु उसका भगतसिंह के मुकदमें पर ढीला रवैया था। ऐसा लगता है, गांधी ने भगतसिंह की आसन्न मृत्यु दण्ड की बात पर ब्रिटिश से अपनी व्यक्तिगत वार्ताओं में जोर नहीं दिया। भगतसिंह के समर्थक कटु हो गए थे। गांधी उनकी ओर से लड़ने में असफल हुए।

बंगाल में भी, सशस्त्रा क्रांतिकारी समूह ने पुनर्गठन और गुप्त कार्यवाहियों को बढ़ाना शुरू किया यद्यपि कुछ लोग कांग्रेस से संबंध बनाये रहे। उनकी योजनाओं में से कलकत्ता के अति घृणित पुलिस कमिश्नर, चाल्र्स टेगार्ट की हत्या एक थी। यह आक्रमण असफल रहा परंतु गोपीनाथ शाहा को पकड़ा और जनता के प्रतिरोध के बाबजूद उसे फांसी दे दी गई। इस असफलता के बाद भी सशस्त्रा विद्रोह के कदमों को त्यागा नहीं गया। नए ’’विद्रोह समूहों’’ में से सबसे अधिक क्रियाशील और प्रसिद्ध था, सूर्या सेन के नेतृत्व वाला चितगांग समूह।

सूर्या सेन ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भागीदारी अदा की थी। वे चिटगांग के नेशनल स्कूल में शिक्षक बन गए थे और वहां कांग्रेस से जुड़ गए थे। स्थानीय कांग्रेस कमेटी के सदस्यों के साथ नए युवा लोगों और अन्य हमवतनों से मिलकर सूर्या सेन ने विद्रोह की योजना बनाई। यह एक छोटी ही योजना थी यह बतलाने के लिए कि ब्रिटिश साम्राज्य की सशस्त्रा शक्ति को चुनौती दी जा सकती थी। उनकी योजना चिटगांग के दो मुख्य शस्त्रागारों को अधिकार में लेना और उनके शस्त्रों को छीनकर चार बड़े क्रांतिकारी समूह से एक बड़ा सशस्त्रा डिटेचमेंट का गठन करना था। अप्रेल 1930 में भयंकर लड़ाई में 80 ब्रिटिश सैनिक और 12 क्रांतिकारी मारे गए परंतु चिटगांग को क्रांतिकारों द्वारा छीना नहीं जा सका। चिटगांग के ग्रामीण इलाकों में सशस्त्रा क्रांतिकारी बिखर गए। अधिकांश गांव के मुस्लिमों ने छिपने, भोजन और 3 वर्षों तक जीवित रह सकने के लिए आश्रय दिया। चिटगांग शस्त्रागार धावे ने बंगाल की जनता पर गहरा प्रभाव डाला और अनेक सशस्त्रा प्रतिरोधों को प्रेरणा दी। परंतु सूर्या सेन अकस्मात् पकड़ा गया और 1934 में फांसी पर लटका दिया गया। उसके अनेक सह लड़ाकू भी पकड़े गए और उनको लम्बे समय के लिए जेल की सजा दी गई।

जैसा कि दिखलाई पड़ा कि कांग्रेस के प्रभाव से राष्ट्र्ीय आंदोलन पूरी तौर से फिसला जा रहा था, गांधी अहिंसात्मक संघर्ष के तरीके पर वापिस आये और 1930-31 का नमक सत्याग्रह शुरू कर दिया। आयातित वस्तुओं के बहिष्कार के कार्यक्रम भी शुरू किये गए। एक बार फिर से जनता स्फूर्तिवान हुई, ब्रिटिश विरोधी कार्यवाही की एक श्रृखंला बनी जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण चिटगांग के शस्त्रागार का धावा और पेशावर के गढ़वाली सैनिकों का सैन्यद्रोह था। गढ़वाली सैनिकों ने आम जुलूस में अपने भाईयों पर गोली चलाने के ब्रिटिश आदेशों की अवज्ञा की थी। उन्हें गांधी से थोड़ी सी ही दया प्राप्त हुई थी।

ट्रेड युनियन प्रतिरोध

साथ ही साथ, ब्रिटिश सत्ता का सामना एक बार फिर हड़तालों की लहर से हुआ। यद्यपि कम्युनिस्ट सरकारी तौर पर गैरकानूनी थे, कम्युनिस्ट और सोशियलिस्ट समर्थक ट्र्ेड युनियन आंदोलनों में गतिशील बने रहे। बंबई के औद्योगिक कामगारों ने सबसे अधिक वीरतापूर्ण प्रतिरोध, लाठी चार्ज और अंधाधुंध गोलियों से भयभीत हुए बिना किया। इस प्रकार के बढ़ते हुए विरोध के उत्तर में ब्रिटिश ने बदला लेने के लिए भारी सशस्त्रा सेना का सहारा लिया और राॅयल एअर फोर्स के बमवर्षक वायुयानों को प्रतिरोधी और हड़ताली कामगारों पर बमबारी करने के लिए बुलाया।

व्यापारियों और बंबई चेम्बर आॅफ कामर्स ने औपनिवेशिक आधार पर भारतीयों के लिए स्वशासन की मांग का समर्थन किया। कामगारों का प्रतिरोध 30 के दशक भर चलता रहा परंतु मोटे तौर पर राष्ट्र्ीय आंदोलन ने नकाफी प्रगति की। कांग्रेस और उसके समर्थकों की उदारवादिता से राष्ठ्र्ीय आंदोलन पंगू बना और ब्रिटिश औपनिवेशिक स्वामियों के क्रूरदमन के द्वारा पीछे ठेल दिया गया।

भारत छोड़ो आंदोलन का निर्माण

सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस के पुनरूत्थान के लिए कोशिश की और उसे उग्रवादी एवं समाजवादी दिशा में मोड़ने का प्रयास किया। उनने गांधी के प्रत्याशी पट्टाभिसीतारमैया को 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाच में हरा दिया। परंतु गांधी द्वारा उनके विरुद्ध प्रचार में वे ठीक से तैयार नहीं थे। कुछ महिनों बाद, उनने पद से स्तीफा दे दिया और वैकल्पिक तथा उग्र मंच तैयार किया जो स्वतंत्राता के बाद, भारत में, फार्वर्ड ब्लाक बना।

द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध संघर्ष के लिए नई एवं दृढ़ परिस्थितियां पैदा कर दीं। 1939 और 1940 में हड़तालें एवं किसान विद्रोह तेज हो गए थे। 1941 में मलाया में इंडियन नेशनल आर्मी को जनरल मोहनसिंह ने जापानी सहायता से आरंभ किया था। वे पंजाब के सियालकोट के थे और जलियांनवाला बाग की हत्याओं और गदर पार्टी के सदस्यों की फांसी से बेहद प्रभावित हुए थे। 1943 में सुभाषचंद्र बोस ने, जो बंगाल के सशस्त्रा क्रांतिकरियों के हमेशा समीप रहे थे, इंडियन नेशनल आर्मी को अपने अधिकार में लिया और उसका नाम बदलकर ’’आजाद हिंद फौज’’ रखा। उनके ’’पूरी लामबंदी’’ के नारे को दक्षिण पूर्वी एशिया में रहने वाले 20,00,000 से अधिक लोगों का समर्थन मिला। उनकी फौज में पंजाबी, मुस्लिम, सिख और पठान पेशेवर सैनिक तामिल और मलयाली रबर बागान कामगारों के साथ मिलकर लड़े थे। आजाद हिंद फौज में बोस ने हिंदू मुस्लिम एकता और मित्राता कैसे प्राप्त हो, प्रमाणित कर दिखला दिया और महिलाओं को सार्वजनिक कामों में समुचित अधिकार के योग्य बनाया।

1942 तक कांग्रेस दृढ़तापूर्वक काम करने के लिए मजबूर हुई और अगस्त में ’’भारत छोड़ो’’ का नारा दिया। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन देश के चारों ओर ज्वारभाटे जैसी शक्तिशाली लहरों की तरह फैल गया। वह अपने जद में देशभक्ति एवं देश पर मर मिटने के ज़जबे को उभारते हुए, हर तकबे के लोगों को ले आया। हिंदू महासभा जैसे अन्य संगठनों के स्वयंसेवक जिनमें भी यह सब था पर वे आम आंदोलन से दूर थे, वे लोग भी इसमें आये। उद्योगपति उत्साहित हुए और ब्रिटिश के विरुद्ध हड़ताली कार्यों को प्रोत्साहित किया।

महिलाओं की भूमिका

भारत के स्वतंत्राता संग्राम का एक महत्वपूर्ण पहलू उसमें महिलाओं की बढ़ती हुई भागीदारी था। आर्थिक बहिष्कार आंदोलन में महिलाओं ने विशेष भूमिका निभाई और अकसर अपने पति या रिस्तेदारों से बढ़कर असहयोग आंदोलन में भाग लेतीं रहीं। कांग्रेस के जुलूसों में प्रायः बच्चों को साथ रखकर महिलाओं ने बड़े पैमाने पर भाग लिया। बंगाल के सशस्त्रा संघर्ष में उनकी भागीदारी विशेष ध्यान देने योग्य थी। सूर्या सेन के दल को उनने आश्रय दिया, संदेश वाहक के काम किये, हथियारों की रखवाली की और हाथ में बंदूक लेकर लड़ाई की। प्रीतिलता वाड्डेगर एक धावे की अगुआई करते हुए मारीं गईं थीं। कल्पना दत्त को गिरफ्तार किया गया। सूर्या सेन के साथ उन पर मुकद्मा चला और आजीवन जेल की सजा दी गई। दिसम्बर 1931 में कोमिल्ला की दो स्कूली लड़कियांे, शांति घोष और सुनीति चैधरी ने डिस्ट्र्क्टि मजिस्ट्र्ेट को गोली मारी थी। फरवरी 1932 में, बीना दास ने कांवोकेशन में डिग्री लेते समय गवर्नर पर असफल गोली चलायी थी। 1942 में जब कांग्रेस के सब नेता जेल में थे अरूणा आसफअली और सुचेता कृपलानी अच्युत पटवर्धन और राम मनोहर लोहिया एवं अन्य के साथ भूमिगत आंदोलन चलाने के लिए आगे आईं। उषा मेहता ने कांग्रेस के रेडियो को चलाने का काम किया था। कांग्रेस, समाजवादी और फारवर्ड ब्लाक के सदस्य और अन्य सशस्त्रा प्रतिरोध दल इस समय भूमिगत गुटों के माध्यम से बंबई, पूना, सतारा, बड़ौदा, गुजरात, कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के हिस्सों में क्रियाशील थे।

दलित, आदिवासी और क्रांतिकारी किसान

भारतीय स्वतंत्राता संग्राम के अंतिम दौर ने किसान आंदोलनों को संघर्षशीलता की नई उंचाईयों तक उठते हुए देखा। 1930 के दशक में, किसान सभा क्रियाशील थी। भारत छोड़ो आंदोलन के नारे के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल में मिदनापुर, महाराष्ट्र् में सतारा, और आंध्र, गुजरात एवं केरल में भी हर वर्ग के किसानों ने स्वतंत्राता संग्राम में भाग लिया था। यहां तक कि कुछ जमीनदार भी इस आंदोलन में शामिल हुए थे। दरभंगा के राजा किसान आंदोलन के बड़े समर्थकों में से एक थे। अपने संघर्ष में आदिवासी एवं खेतहर मजदूर खासकर वीरोचित थे। जमीनदारी प्रथा की अमानवीयता से कुचले हुए उन्हें दो संघर्ष करने पड़ेः एक, ब्रिटिश शासन से और दूसरे, जमीनदारों से जो ब्रिटिश शासन के सहयोगी थे। इन लड़ाईयों में से सबसे अधिक महत्वपूर्ण तेभागा, पुन्नपरा, वायालार, वोरवी आदिवासियों और सबके उपर तेलंगाना किसानों का वीरतापूर्ण सशस्त्रा संघर्ष हैदराबाद निजाम के विरुद्ध था। निजाम ने ब्रिटिश के साथ सहयोग किया था।

स्वतंत्राता संग्राम के दौरान दलित और आदिवासियों के बीच समानता का मामला बार बार उभरता रहा था। दलित नेताओं में फुले, पेरियार और अम्बेडकर सबसे बड़े रूप में उभरे। गदर आंदोलन, हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्रात्मक ऐसोशियेशन और बाद में इंडियन नेशनल आर्मी ने जाति और साम्प्रदायिक अवरोधों को तोड़ कर समानता का रास्ता बनाने में नेतृत्व किया। कांग्रेस यद्यपि कुछ सुधारों के लिए राजी थी परंतु दूर तक आगे नहीं जाना चाहती थी। विप्लव के दलित और आदिवासी नेताओं से वह कटु आलोचना पाती रहती थी। वास्तव में, स्वतंत्राता संग्राम के अग्रिम हिस्से इस निर्णय पर पहुंचे कि आधुनिक देश की तरह भारत को यदि सफल होना था तो दलित एवं आदिवासी एकता की समस्या को नकारा नहीं जा सकता था।

स्वतंत्राता की ओर अंतिम धक्का

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, भारत छोड़ो आंदोलन से पैदा हुए संवेग ने सशस्त्रा कार्यवाहियों को बढ़ाया जिसने ब्रिटिश शासन को बुरी तरह कमजोर किया। विश्व युद्ध ने ब्रिटिश को भारतीय नेवी की इकाईयों की स्थापना के लिए मजबूर किया और भारत के विभिन्न भागांे से आफिसरों को सेवा में लिया। 1946 फरवरी में हड़ताल के विरुद्ध भारतीय नौसैनिकों से बुरा और भेदभावपूर्ण बर्ताव किया गया था। हड़ताल को बंबई बंदरगाह में खड़े सभी 20 जहाजों के भारतीय कर्मीदलों का समर्थन मिला था। नौसेना के 20,000 नाविक हड़ताल पर चले गए। ’’भारत की विजय’’, ’’क्रांति अमर रहे’’ और ’’हिंदू और मुस्लिम एक हों’’ उनके नारे थे। शीघ्र ही महाराष्ट्र् के थाने, दिल्ली की बैरिकों, करांची, कलकत्ता एवं विशाखापटनम में खड़े जहाजों में संघर्ष फैल गया। बंबई की फेक्टरियों के 2,00,000 कामगारों ने हड़ताल के समर्थन में औजार नीचे रख दिए। परंतु मुस्लिम लीग और जिन्ना की तरह गांधी और मौलाना आजाद सहित कांग्रेस के अन्य नेताओं ने, हड़ताल का विरोध किया। पटेल ने हड़तालियों को यह वादा करते हुए कि उनकी छटनी नहीं की जायेगी, शांत करने का प्रयास किया। परंतु पटेल का वादा आम गिरफ्तारी और पुलिस की बर्बर कार्यवाहियों को नहीं रोक पाया, जिनमें 1700 लोग की मृत्यु हुई थी।

भारतीय नौसेना की हड़ताल ने जनता में शक्ति और साहस का संचार किया। प्रतिरोध की कार्यवाहियां गतिशील हुईं। ब्रिटिश ने साफ तौर पर अनुभव किया कि वे भारत पर और अधिक पकड़ नहीं रख सकते और बदले में भारत के बटवारे पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इन अलगाववादी और खतरनाक षड़यंत्रों में मुस्लिम लीग सक्रिय भूमिका अदा करने की इच्छा रखती थी। स्वनिर्णय के अधिकार के बेतुके अर्थ में उस समय की कानूनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जिसने अपने भूतिगत जीवन के अनेक सालों में ट्र्ेड युनियनों और किसान सभाओं को उर्जा देने की अहम भूमिका अदा की थी, ने मुस्लिम एक अलहदा राष्ट्र् था, के विचार का समर्थन किया। इस तरह मुस्लिम लीग के आग लगाउ प्रचार को सैद्धांतिक छत्राछाया उनने दी थी। इससे गदरवादियों और दूसरे कम्युनिस्ट संगठनों जो ’’दो राष्ट्र् नीति’’ के सिद्धांत के विरोध में जोरदार ढंग से लड़े थे, के बीच दरार पैदा हो गई। ट्र्ेड युनियन और विप्लववादी किसान आंदोलनों में हिंदू और मुस्लिम एकता लगभग उल्लेखनीय रही। तब भी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एक भारी भूल में मुस्लिम लीग की अलगाववादी नीति का समर्थन करते प्रतीत होते थे।

स्वतंत्राता भारी कीमत पर जीती गई परंतु वह कीमत उपमहाद्वीप की जनता को उद्वेलित करती चली आ रही है। और, वह कीमत है धार्मिक विभाजन एवं असिंहष्णु प्रतिक्रियावादी आधार पर पाकिस्तान का निर्माण ।

जब हम भविष्य की ओर देखते हैं यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवादिता के विरोध के संघर्ष में यूरोप के पुनर्जागरण ने गंभीर भूमिका अदा की थी। यह बेहद शंकास्पद है कि भारतीय उपमहाद्वीप की जनता धार्मिक अंधविश्वासों, कट्टरता और रूढ़िगत आतंकवाद के धब्बों को मिटाये बगैर, स्वतंत्राता के लाभ को पूरी तरह से उपयोग में ला सके।

यद्यपि 1947 में धर्म आधारित विभाजन की घृणा को प्रेरणावान लोग नहीं जीत सके, यह अति आवश्यक है कि विभाजन का दुख फिर से न दुहराया जा पाये। भारत का इतिहास गवाह है कि कैसे धार्मिक रूढ़िगतता और सामाजिक जड़ता को विचारवान और धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने चुनौतियां दीं और हराया था। परंतु आज के भारत के धर्मनिरपेक्ष आंदोलन चकराये हुए हैं, आत्मविस्मृत हैं। आज कश्मीर मुख्यतया इस लड़ाई का युद्ध क्षेत्रा है। कश्मीर को इस्लामी रूढ़िवादियों एवं आतंकवादियों की घुसपैठ से बचाने में ’’धर्मनिरपेक्ष’’ भारतीय निष्क्रिय और उदासीन हैं, लोगों का प्रभाव अथवा शाबाशी पाने की लालसा में। और, न ही वे हिंदू अंध देशभक्ति या अंधकारिता के साथ इस्लामी विभाजन के कैंसर को हरा सकने की कामना करते हैं।

धर्मनिरपेक्ष समाज के संघर्ष का अनेक आर्थिक समस्याओं के कारण, जो हमारी प्रगति को रोकता है, परित्याग नहीं किया जाना चाहिए। दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों की असली एकता की लड़ाई साथ साथ होना चाहिए। हम सब को वातावरण बनाने की कोशिश करना चाहिए जहां भारत के स्वतंत्राता संग्राम के महानतम नेताओं के संदेश को बड़े पैमाने पर और पहले के मुकाबले ज्यादा फैलाना चाहिए। जिससे, भूख, छतविहीनता, अशिक्षा और बीमारी के कष्ट को समूल नष्ट किया जा सके। देश की स्वतंत्राता तब तक पूर्ण नहीं होगी जब तक हम एक ऐसे देश का निर्माण न कर लें जहां जीवन स्तर खुल्लमखुल्ला उठाया जा सके। जहां आधुनिक विज्ञान के लाभ सहित सही मायने में मानवतावादी और समानतावादी समाज का वातावरण समानरूप से सबको अवसर प्रदान करने वाला हो।

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