स्वाधीनता के स्वर्णिम अतीत में जाँबाजी का अमिट अध्याय बन चुके आदि विद्रोही टंट्या भील अंग्रेजी दमन को ध्वस्त करने वाली जिद तथा संघर्ष की मिसाल है। टंट्या भील के शौर्य की छबियां वर्ष 1857 के बाद उभरीं। जननायक टंट्या ने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा ग्रामीण जनता के शोषण और उनके मौलिक अधिकारों के साथ हो रहे अन्याय-अत्याचार की खिलाफत की। दिलचस्प पहलू यह है कि स्वयं प्रताड़ित अंग्रेजों की सत्ता ने जननायक टंट्या को “इण्डियन रॉबिनहुड’’ का खिताब दिया। जननायक टंट्या भील को वर्ष 1889 में फाँसी दे दी गई।
आदिवासियों का रॉबिनहुड था टंट्या भील
मध्यप्रदेश का जननायक टंट्या भील आजादी के आंदोलन के उन महान नायकों में शामिल है जिन्होंने आखिरी साँस तक फिरंगी सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की मुहिम जारी रखी थी। टंट्या को आदिवासियों का रॉबिनहुड भी कहा जाता है क्योंकि वह अंग्रेजों की छत्रछाया में फलने फूलने वाले जमाखोरों से लूटे गए माल को भूखे-नंगे और शोषित आदिवासियों में बाँट देता था।गुरिल्ला युद्ध के इस महारथी ने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में लगातार 15 साल तक अंग्रेजों के दाँत खट्टे करने के लिए अभियान चलाया। अंग्रेजों की नजर में वह डाकू और बागी था क्योंकि उसने उनके स्थापित निजाम को तगड़ी चुनौती दी थी।
कुछ इतिहासकारों का हालाँकि मानना है कि टंट्या का प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं था लेकिन उसने गुलामी के दौर में हजारों आदिवासियों के मन में विदेशी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष की अखंड ज्योति जलाई थी। यह ज्योति उसे भारतीय आजादी के इतिहास में कभी मरने नहीं देगी।
टंट्या निमाड़ अंचल के घने जंगलों में पला-बढ़ा था और अंचल के आदिवासियों के बीच शोहरत के मामले में दंतकथाओं के नायकों को भी मात देता है। हालाँकि उसकी कद-काठी किसी हीमैन की तरह नहीं थी।
दुबले-पतले मगर कसे हुए और फुर्तीले बदन का मालिक टंट्या सीधी-सादी तबीयत वाला था।
किशोरावस्था में ही उसकी नेतृत्व क्षमता सामने आने लगी थी और जब वह युवा हुआ तो आदिवासियों के अद्वितीय नायक के रूप में उभरा। उसने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए आदिवासियों को संगठित किया। धीरे-धीरे टंट्या अंग्रेजों की आँख का काँटा बन गया।
इतिहासविद् और रीवा के अवधेशप्रताप सिंह विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एसएन यादव कहते हैं कि वह इतना चालाक था कि अंग्रेजों को उसे पकड़ने में करीब सात साल लग गए। उसे वर्ष 1888-89 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया।
डॉ. यादव ने बताया कि मध्यप्रदेश के बड़वाह से लेकर बैतूल तक टंट्या का कार्यक्षेत्र था। शोषित आदिवासियों के मन में सदियों से पनप रहे अंसतोष की अभिव्यक्ति टंट्या भील के रूप में हुई। उन्होंने कहा कि वह इस कदर लोकप्रिय था कि जब उसे गिरफ्तार करके अदालत में पेश करने के लिए जबलपुर ले जाया गया तो उसकी एक झलक पाने के लिए जगह-जगह जनसैलाब उमड़ पड़ा।
कहा जाता है कि वकीलों ने राजद्रोह के मामले में उसकी पैरवी के लिए फीस के रूप में एक पैसा भी नहीं लिया था।
आदिवासियों के लिए देवता है आजादी के सेनानी टंट्या भील
देश में आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 के विद्रोह में जिन अनेक देशभक्तों ने कुर्बानियां दी थी, उन्हीं में से एक नाम है आदिवासी टंट्या भील। आजादी के इतिहास में उनका जिक्र भले ही ज्यादा न हो मगर वह मध्य प्रदेश में मालवा और निमाड़ अंचल के आदिवासियों के लिए आज भी किसी देवता से कम नहीं हैं।
यही वजह है कि इंदौर के करीब पातालपानी में टंट्या भील की प्रतिमा स्थापित कर मंदिर बनाया गया है और आदिवासी उनकी पूजा करते हैं।
ब्रिटिश काल में देश के अन्य हिस्सों की ही तरह मध्य प्रदेश में भी दमन चक्र जारी था। उस दौर में मालवा-निमाड़ इलाके में जन्मे आदिवासी टंट्या भील ने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। धीरे-धीरे टंट्या भील का जलगांव, सतपुड़ा की पहाड़ियों से लेकर मालवा और बैतूल तक दबदबा कायम हो गया। वह आदिवासियों के सुख-दुख के साथी बन गए और उनके सम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष करने में पीछे नहीं रहे।
वक्त गुजरने के साथ टंट्या भील आदिवासियों के लिए ‘इंडियन रॉबिनहुड’ बन गए और उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। वह अंग्रेजों का धन-सम्पत्ति लूटकर गरीब आदिवासियों में बांट दिया करते थे। परेशान होकर अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें डकैत करार देकर उन पर इनाम भी घोषित कर दिया। बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया और जबलपुर जेल में फांसी दे दी गई।
इंदौर से लगभग 45 किलोमीटर दूर पातालपानी-कालाकुंड रेलवे स्टेशन के लाइनमैन राम अवतार बताते हैं कि आदिवासियों के बीच मान्यता है कि टंट्या के पास कई रहस्यमय शक्तियां थीं जिनके चलते उनका अंग्रेजों के साथ लुका-छुपी का खेल चलता था।
इलाके के आदिवासियों के बीच टंट्या भील आजादी के सेनानी नहीं, बल्कि देवता के रूप में पूजे जाते हैं। पातालपानी में उनका मंदिर बना है जहां आदिवासी समुदाय के लोग पहुंचकर उनकी पूजा कर उनसे मनौती मांगते हैं।
मान्यता है कि वहां मांगी गई उनकी मुराद पूरी भी होती है। इतना ही नहीं, इस रेल मार्ग से गुजरने वाली हर ट्रेन भी यहां टंट्या के सम्मान में रुकती है और ट्रेन का चालक टंट्या की प्रतिमा के आगे नारियल और अगरबत्ती अर्पित कर ही ट्रेन को आगे बढ़ाता है।
मध्य प्रदेश सरकार इस वर्ष गणतंत्र दिवस समारोह के अवसर पर दिल्ली में आयोजित परेड में टंट्या भील पर केन्द्रित झांकी प्रस्तुत करने वाली है। राज्य संस्कृति विभाग के संचालक श्रीराम तिवारी ने आईएएनएस को बताया कि गणतंत्र दिवस की इस झांकी में टंट्या भील के स्वतंत्रता संग्राम के योगदान को पेश किया जाएगा।
एक अनपढ़ आदिवासी ने नींद उड़ा दी थी अंग्रेज सरकार की
हमारे देश में जब भी स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर सरकारी स्तर पर कोई आयोजन होता है तो प्रधान मंत्री से लेकर मंत्री और मंच पर बैठे राजनेता गाँधी, नेहरु जैसे कुछ नेताओँ के नामों की जय-जयकार कर देश के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास बता देते हैं। लेकिन देश में हजारों लाखों ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने हमारी आजादी की असली लड़ाई लड़ी, उनका नाम न तो इतिहास की किताबों में है न सरकारी दस्तावेजों में। वे अगर जिंदा हैं तो देश के उन आम लोगों के बीच जिनके लिए उन्होंने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। मध्य प्रदेश का टंट्या भील एक ऐसा ही आदिवासी युवक था जिसने अकेले ही पूरे अंग्रेजी साम्राज्य की नींद उड़ा दी थी। बेहद गरीब घर में पैदा हुए टंट्या भील ने उस समय देश की की आजादी का बिगुल फूँक दिया था, जब गाँधीजी नामके किसी शख्स का नाम तक कोई नहीं जानता था।
यह निर्विवाद सत्य है कि हर आजादी के दीवाने को तात्कालिक सत्ता ने बागी ही निरूपित किया। चाहे औरंगजेब की मुगल सत्ता हो या फिरंगियों की गोरी सत्ता। क्रांतिकारी टंट्या भील ने भी राजशाही और अंग्रेज सत्ता से बारह वर्ष तक सशस्त्र संघर्ष किया तथा जनता के हृदय में जननायक की भाँति स्थान बनाया। स्वाधीनता संग्राम में राजनैतिक दलों और शिक्षित वर्ग ने अंग्रेजी साम्राज्य को समाप्त के लिए सशक्त आंदोलन किए। लेकिन इसके पहले टंट्या भील जैसे आदिवासी क्रांतिकारियों और जनजातियों ने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आम लोगों की आवाज बुलंद कर देश को गुलामी से मुक्त कराने का शंखनाद किया था। टंट्या भील के रूप में आदिवासियों और आमजनों की आवाज मुखरित हुई थी।
एक सौ बीस वर्ष पूर्व देश के इतिहास क्षितिज पर 12 वर्षो तक सतत् जगमगाते रहे क्रांतिकारी टंट्या भील जनजाति के गौरव है। वह भील समुदाय के अदम्य साहस, चमत्कारी स्फूर्ति और संगठन शक्ति के प्रतीक हैं। वह अदम्य साहस के स्वस्फूर्त स्वाभाविक उदाहरण बन गए। इसीलिए अंग्रेज सरकार उन्हें 'इंडियन राॉबिनहुड' कहती थी। द न्यूयार्क टाइम्स के 10 नवम्बर 1889 के अंक में ट्टंया भील की गिरफ्तारी की खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। इसमें ट्टंया भील को भारत का रॉबिनहुड बताया गया। टंट्या भील अंग्रेजों का सरकारी खजाना और अंग्रेजों के चाटुकारों का धन लूटकर जरूरत मंदों और गरीबों में बाँट देते थे। वह गरीबों के मसीहा थे। वह अचानक ऐसे समय लोगों की सहायता के लिए पहुँच जाते थे, जब किसी को आर्थिक सहायता की जरूरत होती थी। वह गरीब-अमीर का भेद हटाना चाहते थे। वह छोटे-बड़े सबके मामा थे। उनके लिए मामा संबोधन इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रत्येक भील आज भी अपने आपको मामा कहलाने में गौरव का अनुभव करता है।
टंट्या भील का जन्म तत्कालीन सीपी प्रांत के पूर्व निमाड़ (खण्डवा) जिले की पंधाना तहसील के बडदा गांव में सन 1842 में हुआ था। वह फिरंगियों को सबक सिखाना चाहते थे। भीलों के समाजवादी सपने को साकार करना चाहते थे। उन्हें देश की गुलामी का भी भान था! वह बार बार जेल के सींखचों को तोड़कर भाग जाते थे। छापामार युध्द में वह निपुण थे। उनका निशाना अचूक था। भीलों की पारंपरिक धनुर्विद्या में निपुण थे। 'दावा' यानी फालिया उनका मुख्य हथियार था। उन्होंने बंदूक चलाना भी सीख लिया था। युवावस्था से लेकर अंत समय तक टंट्या का सारा जीवन जंगल, घाटी, बीहडों और पर्वतों में अंग्रेजों और होलकर राज्य की सेना से लोहा लेते बीता। टंट्या ने अंग्रेज साम्राज्य और होल्कर राज्य की शक्तिशाली पुलिस को बरसों छकाया और उनकी पकड़ में नहीं आए। टंट्या की सहायता करने के अपराध मे हजारों व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया तथा सैकडों को जेल भेजा गया। लेकिन 11 अगस्त 1889 को रक्षाबंधन के अवसर पर मुँहबोली बहन के घर जीजा गणपत द्वारा किए गए विश्वासघात के कारण उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। टंट्या को ब्रिटिश रेसीडेन्सी क्षेत्र में स्थित सेन्ट्रल इन्डिया एजेन्सी जेल (सी.आई.ए.) इन्दौर में रखने के बाद पुलिस के कड़े सशस्त्र पहरे में जबलपुर ले जाया गया।
टंट्या को बड़ी-बड़ी भारी बेड़ियां डालकर और जंजीरों से जकड़कर जबलपुर की जेल में बंद रखा गया जहां अंग्रेजी हुक्मरानों ने उन्हें भीषण नारकीय यातनांए दीं और उन पर भारी अत्याचार किए। टंट्या को 19 अक्टूबर 1889 को सेशन न्यायालय जबलपुर ने फांसी की सजा सुनाई। जनविद्रोह के डर से टंट्या को कब और किस तारीख को फांसी दी गई यह आज भी अज्ञात है। आम मान्यता है कि फाँसी के बाद टंट्या के शव को इंदौर के निकट खण्डवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेल्वे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया था। वहाँ पर बनी हुई एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंट्या मामा की समाधि माना जाता है। आज भी सभी रेल चालक पातालपानी पर टंट्या मामा को सलामी देने कुछ क्षण के लिए रेल को रोकते हैं।
टंट्या मामा द्वारा किए गए कार्यों को निमाड़, मालवा, धार-झाबुआ, बैतूल, होशंगाबाद, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में लोगों ने अपनी लोक चेतना में उसी तरह शामिल कर लिया। जिस तरह लोक देवता पूजित होते हैं। टंट्या मामा की सबसे अधिक गाथाएँ निमाड़ अंचल में रची गईं। मालवी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि में भी टंट्या भील का चरित्र गाया जाता है। मध्यप्रदेश सरकार ने जनजाति प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से एक लाख रूपए का जननायक ट्टंया भील सम्मान स्थापित किया है। यह सम्मान शिक्षा तथा खेल गतिविधियों में उपलब्धि हासिल करने वाले प्रदेश के एक आदिवासी युवा को प्रतिवर्ष प्रदान किया जाएगा।
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